द्वंद- किरण बरनवाल

बड़ी-बड़ी आँखे, दूर तक मौन पसरी हुई महसूस हो रही थी, बिखेरे बिखरे छितराए केश, गहरे लाल रंग की साड़ी, माँग से मस्तक तक पूते सिंदूर। माँ दुर्गा मानो धरती पर अवतरित हुईं हो, पर चेहरे पर ऐसी शाँति जैसे लंबी लड़ाई लड़ते-लड़ते थक कर हार चुकी हो।
पुलिस चौकी वाले हैरान परेशान! कौन हैं? कहाँ से आई है? कुछ समझते कि कुर्सी पर आ बैठी, दोनों हाथ यूँ आगे फैला दी जैसे मृत्यु का वरण करने आई हो “लगा दीजिए बेड़ी, ले चलिये फांसी वेदी पर, नहीं करनी कोई जिरह, नहीं देना मुझे सफाई” ….चुप्पी ने आवरण ओढ़ लिया।
सबके होश उड़े थे, कई दफा आवाज़ देने पर भी कोई जवाब नहीं …. खुद से जद्दोजहद करती चुप्पी ओढे थी या उसने नियती के आगे सर झूका दिया था।
आँखे एकटक दीवार को देखे जा रही थी,कोई हलचल नहीं, उड़ती हुई पवन ने अपनी प्रचंड उग्र वेग को अचानक रोक दिया था। समुद्र की तरंगे आगे बढने से पहले बुलबुले में परिवर्तित हो चुकीं थीं…शांति, घोर शान्ति, सुई भी गिरे तो छन् से आवाज़ आए।
मासूम सी इस महिला के भावविहीन चेहरे को देख कठोर स्वभाव वाले सिपाही भी हिल से गये। “क्या हो रहा है, कौन है”, क्या चाहती है? के अलावे सिर्फ़ चलती साँसों की धड़कन शोर मचा रही थी। उसके मोटे मोटे पनीली आँखों की पलकें उठ रहीं थीं, गिर रहीं थीं, सारे संसार का कष्ट अपने में समेटे रहस्यमय महिला को झकझोरा गया तब शायद अतीत से निकल बाहर आई……कहाँ आ गई? क्या हुआ ..अच्छा आजाद कर दिया…मुक्त हो गया एक और रावण।एक जोरदार अट्टहास …फिर घोर शान्ति ।थोड़ी देर बाद शायद दिल के ऊफान को समेटते अस्फुट स्वर में बोलने की कोशिश करती….हाँ मैंने मुक्त कर दिया, मुक्त कर दिया नरपिशाच को जो जो छद्म वेश में सबको इंसान होने का धोखा दे रहा था।बहुत समझाया, पर नहीं ..अपने फायदे के लिये कुछ भी कर लेता, क्या उम्मीद करती उससे जो जिंदगी की रेस में आगे बढ़ने के लिए अपनी नवब्याहता को दावं पर लगा दिया।भरी सभा में पांचाली को दांव पर लगाया गया जिसकी परिणति महाभारत की लड़ाई लड़ी गई ….मेरे लिए कौन आवाज उठाता, क्या गलत किया, दुष्ट पापी को हटा धरा का भार हल्का कर दिया। बर्दाश्त कर रही थी…आगे भी कर ही लेती, पर नहीं… नहीं समझा उसने।
अच्छा किया ना मैने इंसाफ कर दिया।चुप थी संस्कार मिला था’डोली मायके से जाये तो अर्थी ससुराल से ही निकले’ ।अर्थी तो उसी वक्त निकल गई थी जब तरक्की पाने के लिए उपहार स्वरुप मुझे किसी और का बिस्तर सजाने के लिए भेज दिया गया था। जिन्दा लाश बनी समाज की संभ्रांत महिला बनी जी रही थी। कन्या दान कर क्यों कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं जनक? दरवाजा खटखटा कर अंततः थक हार किस्मत से समझौता कर लिया था। मेरे सो कोल्ड हाई लाइफस्टाइल पर रश्क करते लोग, कैसे बतलाती पीतल पर सोने का कलई चढा है।
हाँ, जी रही थी दोहरी जिंदगी, अंदर से दबी कुचली खुश होने का स्वांग रचा रही थी,भविष्य में भी नाटक चलता ही रहता, लेकिन नहीं ……कैसे मुरझाने देती उस कली को जिसे दिल से लगा ममता से सींचा ।कोखजायी तो नहीं थी, अनाथ पड़ी सड़क पर मिली थी, मुझे….उसी में जीने का सहारा ढूँढ लिया था, माँ बनने के अधिकार को भी तो छिन लिया था उस रावण ने, देह से शिथिल हो उसके राह का अवरोध बन जाता ना ये कमनीय काया। मै तो जीते जी जल रही थी,कैसे जलने देती अपनी सीता को उस हवनकुंड में जो उसे अपवित्र कर देता।
जला दिया मैंने आज के रावण को और उसके अंतस में छुपे अंहकार को।जोरदार हंसी…धरती भी कांपने लगी हो ,कहीं दूर मंदिर के घंटे लगातार बजे जा रहे थे। आज कुछ तो हुआ था जो पहले कभी ना हुआ था….प्रभू राम ने माँ दुर्गा को शक्ति दिया था रावण का वध करने का।

-किरण बरनवाल
(सौजन्य:- साहित्य किरण मंच)