धर्मक्षेत्रे चुनावक्षेत्रे- प्रशांत सेठ

कुरुक्षेत्र (चुनाव) के मैदान में इस बार अर्जुन (वोटर) फिर भ्रमित था। ईवीएम के सामने उसने अपना अँगूठे रूपी गाण्डीव को घर दिया। तभी केशव (चुनाव आयोग के अधिकारी के रूप में) प्रकट होते हैं।

केशव- वोट डालो पार्थ!

अर्जुन- नहीं केशव, यह मुझसे नहीं होगा। यह पंजा, फूल, हाथी, साइकिल, झाड़ू सभी मेरे अपने हैं। सभी मेरे विकास की बात कर रहे हैं। मैं इनमें से किसके लिए अड़ूँ? मुझे तो यह भी समझ में नहीं आ रहा कि ये सब आपस में क्यों लड़ रहे हैं? तुम धर्मराज को समझाओ कि युद्ध व्यर्थ है, राष्ट्रधन की बर्बादी है। मैं असमंजस में हूँ केशव।

केशव- उठो पार्थ! क्या तुम्हें द्वापर में दिया ज्ञान विस्मृत हो गया है?

अर्जुन- नहीं केशव, मुझे भली प्रकार से याद है, तुम्हारे कहने पर ही मैंने इस विचार को धारण किया है कि “मैं देह नहीं आत्मा हूँ”। मुझे प्रत्येक जीव में आत्मा रूपी तुम्हारा ही अंश दिखाई देता है। फिर यह घृणा कैसी और प्रीति भी कैसी केशव?

केशव- पार्थ, युगों तक बारम्बार जन्म जीवन और मरण के चक्र में पड़कर जीवात्मा स्वयं का एक स्वभाव प्राप्त कर लेती है। मन बुद्धि अहंकार रूपी चित्त इसी स्वभावानुसार पसंद नापसंद को धारण कर लेता है। उसके संचित कर्म उसके अवचेतन में स्मृति रूप में दर्ज रहते हैं, जो प्रारब्ध कहलाते हैं। इसी कारण उसके चित्त में कुछ पूर्व धारणाएं बनी रहती हैं। यही उसका स्वभाव बन जाती हैं और इन्ही के प्रभाव में जीव नए कर्म करता है। यही कर्म का चक्र है पार्थ।

अर्जुन- जैसे मुझे अश्व और श्वान प्रिय प्रतीत होते हैं, परंतु सर्पों की ओर दृष्टि करना भी रुचिकर नहीं है। किंतु इस संसार में ऐसे लोग भी हैं जो सर्पों को गले में लटकाए घूमते हैं। जैसे यह भोली भाली जनता, यहाँ तक की स्वयं भगवान भोलेनाथ भी। कदाचित इसीलिए बहुत से राजनेता कैलाश की ओर उन्मुख हैं प्रभु।

केशव- गौर से देखो पार्थ। इस सृष्टि में सर्पों की भी अपनी उपयोगिता है। सृष्टि के संतुलन के लिए प्रत्येक प्रजाति उपयोगी है। सर्पों के कारण चूहे नियंत्रित रहते हैं, अन्यथा धरा पर उनका आधिपत्य हो जाता। मैंने कुछ भी निरर्थक नहीं बनाया पार्थ। तुम्हारी निजी पसंद-नापसंद का यहाँ कोई महत्व नहीं है। राष्ट्रधर्म की रक्षार्थ वोट डालना ही होगा पार्थ।

अर्जुन- प्रभु, ये कैसी विडंबना है। प्रत्येक जीव में आत्मा रूपी तुम्हारा ही दर्शन कर रहा हूँ। परंतु इन ठगों में और शोषकों में भी तुम हो? दुर्योग से धन संग्रह करने वाले दुर्योधनों में भी तुम हो? ये कैसी लीला है केशव?

केशव- हाँ अर्जुन, मैं उनमें भी हूँ। पक्ष में भी, विपक्ष में भी, मैं ही हूँ। मैं ही जनता जनार्दन हूँ। मेरे द्वारा प्रदत्त समर्थन से इनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं को प्राण मिलते हैं। मेरे दिव्य स्वरूप का दर्शन करो पार्थ।

(भगवान अपने विराट स्वरूप में आ जाते हैं)

केशव- मैं ही शोषक में हूँ, मैं ही शोषित में हूँ। जिस प्रकार कई युगों से बारम्बार जन्म लेते लेते तुमने अपना चित्त प्राप्त किया है, उसी प्रकार इन्होंने भी किया है पार्थ।

पार्थ- आपने तो मुझे और भ्रमित कर दिया केशव। अब इतने सारे शोषकों और ठगों में से मैं किसको चुनूँ? मैं अपने शोषण का अधिकार किसको दूँ, हे केशव।

केशव- मैं सम-भाव से प्रत्येक जीव में हूँ। मैं ही प्राण स्वरूप हूँ। मैं ही चेतन रूप आत्मतत्व हूँ। मैंने मनुष्य को जन्म दिया है, किंतु इन्हें ठग और शोषक तो तुमने बनाया है पार्थ।

अर्जुन (फटी फटी आँखों से)- मैंने? वो कैसे केशव?

केशव- गौर से देखो पार्थ। तुम्हारे जीवन में इन ठगों और शोषकों का प्रवेश कैसे हुआ? तुम्हारे व्यक्तित्व में कुछ कमियाँ हैं और इन्ही चोर दरवाजों से ये प्रवेश करते हैं पार्थ।

अर्जुन- मैं समझा नहीं केशव।

केशव- तुम्हारा लोभ ही ठगों को जन्म देता है और तुम्हारा भय ही शोषण को आमंत्रण देता है। तुम मुफ्त राशन, आरक्षण, कर्ज माफी, मुफ्त बिजली पानी सब चाहते हो। तब कोई दुर्बुद्धिमान मनुष्य ठग बनकर उत्पन्न हो जाता है। जब तुम्हारे भीतर भय का जन्म होता है, तभी किसी शोषक का भी जन्म होता है पार्थ। जब तुम अहंकारी हो रहे होते हो तो कहीं कोई चापलूस भी जन्म लेता है। जब तुम दूसरे मनुष्यों के भीतर के ईश्वर को नकार देते हो, तब कोई तुम्हें मंदिर के स्वप्न दिखाता है, तो कोई 72 हूरों की जन्नत का। जब तुम व्यवहारिकता को त्याग कर अति भावुक होते हो, तब तुम्हें उकसाकर ठग लेना सरल हो जाता है पार्थ। यही सृष्टि में संतुलन बनाये रखने की मेरी प्रक्रिया है।

अर्जुन- प्रभु!

केशव- तुम कलयुगी अर्जुन हो, इसीलिए तुम्हें तुम्हारी भाषा में समझाता हूँ। इस युग में मनुष्य स्वार्थ और मोह में अंधा है। मोह से ही भय उत्पन्न होता है। मैंने द्वापर में भी समझाया था कि इस नश्वर देह और जीवन से मोह कैसा? निष्काम भाव से कर्म ही मुक्ति का उपाय है। परंतु गीता की कसम खाते खाते तुम कब गीता को ही खा गए, तुम्हें इसका बोध नहीं है।

सुनो पार्थ, तुम्हारे संचित कर्म और चित्त के बंधन पुनः इसी धरा पे जन्म लेने को बाध्य करेंगे। तुम स्वार्थी हो इसीलिए भावी पीढ़ी की चिंता भले ही मत करो, परंतु अपने ही अगले जन्मों की चिंता अवश्य करो। ये पंजा, फूल, हाथी, साइकिल, झाड़ू तुम्हें तब भी मिलेंगे।

अर्जुन- उपाय क्या है केशव? इस राजनीतिक चक्रव्यूह को कैसे तोड़ूँ प्रभु।

केशव- अपने लोभ को, भय को, अहंकार को मारो पार्थ। सत्य और ईमानदारी को धारण करो। तभी किसी सच्चे नेता का उदय होगा। जिस प्रकार लोभ से ठगों का अस्तित्व है, भय से शोषक का; उसी प्रकार सत्य, ईमानदारी, निर्भयता से राष्ट्रधर्म का अस्तित्व है और निस्वार्थ वोटर से कर्मठ नेतृत्व का।

वोट जरूर डालना पार्थ!

केशव तो अंतर्ध्यान हो गए। अब कुरुक्षेत्र में अर्जुन और उसका गाण्डीव ईवीएम को मुस्कुराकर देख रहे हैं।

-प्रशांत सेठ