ऐ ख़ाक-ए-बदन- सूरज राय सूरज

माँ, बाप, बहन, भाई, सगे यार बहुत थे
अये ख़ाक-ए-बदन, तेरे चमत्कार बहुत थे

सबकी तरह मुझे भी दिया सांस का सफ़र
फिर मेरी रहगुज़र में ही क्यूँ ख़ार बहुत थे

आँखों में ख़्वाब अब नहीं आते, गिला नहीं
इस मयकदे में भी कभी मयख़्वार बहुत थे

बरसाए मेरे बच्चे ने, मुझपे सवाल-ए-कल
बारिश थमी तो हाथ में अंगार बहुत थे

बस एक मुट्ठी क़ब्र की मिट्टी, सिला-ए-प्यार
दुनिया की मोहब्बत में गिरफ़्तार बहुत थे

इस तरह से ही मेरा कबीला हुआ गुलाम
दो-चार ही सिपाही थे, सरदार बहुत थे

सूरज ढला तो दर्द-ओ-मैं तनहा ही रह गए
पर दिन में मेरे दर्द के हक़दार बहुत थे

– सूरज राय सूरज