वर्तमान राजनीति में युवा की सहभागिता क्यों- स्नेहा किरण

बहुत कुछ सुन रही हूँ और बहुत कुछ देख रही हूँ, अपने आस-पास की इस बदलती फिज़ा को जी रही हूँ। कई राष्ट्रीय चैनलो में इस 17वीं लोकसभा चुनाव की दशा और दिशा पर चलने वाली इस अंतहीन बहस को भी देख रही हूँ और आमलोगो की मानसिकता देख कर हतप्रभ हूँ। अब समझ में आ रहा है कि ‘मानसिक स्वतंत्रता’ वाकई किस चिड़िया का नाम है। हम पर विदेशियों ने हजारों वर्षो से भी अधिक समय तक शासन किया, इसलिए अब इस देश के आवाम की यह विचारधारा बन गई है कि सार्वजनिक मुद्दों पर अपनी राय थोपने का जन्म-सिद्ध अधिकार विदेशियों को ही है और इस पर कोई निर्णय लेना भी उन्ही की जिम्मेवारी है, सच मे 131 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के इस देश ने अपनी राजनीतिक इच्छा -शक्ति खो दी है, क्योंकि हमें पता है कि अपनी समस्या हम ख़ुद हल नहीं कर सकते। उम्मीद है की सरकार जिसकी भी बनें वो ‘स्टॉक-मार्केट’ को अपना आदर्श नहीं बनाएगी, क्योंकि हमेशा से हमनें यही देखा है की यदि सेंसेक्स की उछाल पर ध्यान रखा जाए तो शर्तिया लोग छूट जाते है, आम जनता का व्यापक हित पीछे छूट जाता है, हम-आप पीछे छूट जाते है। आज़ राजा-मोदी जी हैं, कल राहुल जी और परसों केजरीवाल जी या फिर कोई और मुद्दा ये है कि राजा क़ोई भी बने पर इस देश का रंक कभी न रोये, हर सरकार इस अहम् बात का ध्यान रखें। बात बस इतनी सी है।
कई दिनों से इन्हीं सब संवेदनशील मुद्दों पर मेरी आप सबसे रूबरू होने की इच्छा थी। भूमंडलीकरण के इस स्वर्णिम दौर में सोशल मीडिया ने हमारे और आपके बीच के इस वैचारिक रिश्ते को जो मजबूती प्रदान की है, उसी रिश्ते से आज आप सबों के सामने मैंने इस चुनावी महासमर के दौरान इस बेहद प्रासंगिक विषय पर जिसका नाम है- ‘युवा और राजनीति’ पर दो शब्द कहने की कोशिश कर रही हूँ और इस वृहद् विषय की शुरुआत मै अपने सीमांचल के युवाओं से ही करना चाहुँगी। जैसा की आप सब जानते है 11,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला लगभग डेढ़ करोड़ की आबादी को समेटे आज हमारे, हम सबके सीमांचल की सबसे बड़ी अनिवार्य आवश्यकता AIIMS पर गत 30 जनवरी 2019 को सहरसा, 17 फरवरी 2019 को मधेपुरा, सुपौल, त्रिवेणीगंज के बाद 25 फरवरी 2019 को सौरबाज़ार (प्रखंड परिसर) सहरसा में आयोजित यह महापंचायत पूरी तरह सफ़ल रही; इसके लिए सीमांचल वासियों का ह्रदय से आभार, खासकर उन युवा कार्यकर्ताओं का बहुत बहुत धन्यवाद जिन्होंने बिना दिन-रात की परवाह किए बगैर इसे एक व्यापक जन आंदोलन में तब्दील कर दिया।
हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ गौतम कृष्ण के मार्गदर्शन में पीपुल्स पॉवर की टीम की इस संघर्ष-यात्रा की गूँज दिल्ली की सड़कों पर जोर-शोर से सुनाई देने लगी है, अब बस इस गूँज को संसद-भवन तक पहुँचाना है और इसके लिए पूरे सीमांचल से एकजुट होने की अपेक्षा है। अन्य राजनीतिक पार्टीयों के युवाओं से, सदस्यों से भी अनुरोध है की वो सब दलगत राजनीति की भावना से ऊपर उठकर AIIMS के मुद्दे पर एकजुट रहे। 11,000 वर्गकिलोमीटर के क्षेत्र में फैला लगभग डेढ़ करोड़ की आबादी को समेटे हुए अपने सीमांचल को AIIMS जैसे हेल्थ सेंटर का एक मुद्दत से इंतज़ार है। सीमांचल में AIIMS जैसी स्वास्थ्य संस्थाओं की जरूरत एक अरसे से महसुस की जा रही है। आज सहरसा सरकार द्वारा AIIMS निर्माण के लिए प्रस्तावित सभी शर्तों को पूरा कर रहा है!! सरकार द्वारा अधिगृहित 217 एकड़ जमीन के साथ यहाँ किसी मेडिकल कॉलेज का न होना, दूर-दराज के क्षेत्रों से संपर्क में बने रहने के लिए हवाई अड्डा का मौजूद होना, रेल स्टेशन और बस स्टैंड से प्रस्तावित भूमि की दूरी नजदीक होना, सघन आबादी वाला क्षेत्र, ऊँचा और बाढ़ के पानी से अप्रभावित प्रस्तावित भूमि का मौजूद होना और आर्थिक रूप से पिछड़ा इलाका होना सब मिलाकर सहरसा सीमांचल में AIIMS निर्माण के लिए ही सीमांचल में सबसे मुफ़ीद इलाका है। मेरा आप सबों से यही अनुरोध है की कृपया आप सब सीमांचल में AIIMS निर्माण के लिए शुरू किए गए इस अभियान को सफ़ल बनाए और AIIMS निर्माण के हर चरण में अपनी सक्रिय सहभागिता दे। अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे कहनी है की अगर हम सब सीमांचलवासी AIIMS के इस मुद्दे पर आज एकजुटता से खड़े हो जाए और इस बात की परवाह ही न करे की सीमांचल में AIIMS निर्माण का श्रेय किसे मिलेगा तो शायद हम इस लोकसभा सत्र में ही AIIMS जैसे हेल्थ सेंटर को प्राप्त कर पाने में सफ़ल हो जाएंगे। ध्यान रहे की हमारी ये छोटी सी राजनीतिक समझ कलान्तार में एक बड़े संस्था को जन्म देने का कारण बन सकती है और वैसे भी राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता है! और कोई भी बड़ी बीमारी, कोई स्वास्थ्यगत समस्या या संक्रामक रोग आप पर आक्रमण करने से पहले ये नहीं देखता है की आप किस राजनीतिक दल के सदस्य है। इसलिए AIIMS जैसे मुददे पर छोटी से छोटी राजनीतिक गुटबाजी या मुर्खता हमें बहुत भारी पड़ जायेगी। आज अपने सीमांचल में बेहतर चिकित्सा सुविधाओं के पूर्णत अभाव और प्राइवेट चिकित्सा संस्थानों के नकारात्मक वर्चस्व, व्यावसायिक दृष्टिकोण और आर्थिक मनमानी के कारण समाज के कई प्रबुद्ध वरिष्ठजनों और प्रिय जनों को असमय काल-कलवित होते देख सीमांचल के लिए AIIMS जैसे हेल्थ सेंटर का संकल्प लेना हम सबों की प्राथमिकता में शुमार होना चाहिए!
‘क्यों न इस 17वीं लोकसभा चुनावी महापर्व पर हम सब ‘युवा’ ‘श्रोता’ और ‘सोता’ की बजाए ‘सरोता’ बनने व बनाने का संकल्प लें। क्योंकि सबसे खतरनाक है- सब कुछ शांति से सहन कर लेना। घर से निकलना काम पर और वापस घर लौट जाना। जिस दिन इस देश का सबसे कमजोर व गरीब व्यक्ति डरना बंद कर देगा, भ्रष्ट तंत्र के आगे गर्दन नहीं झुकायेगा। उसी दिन ये देश वास्तविक आज़ादी के अहसास को पा लेगा तभी जाकर सही मायनों में स्थाई बदलाव आयेगा। समस्या की जड़ में भी राजनीतिक तंत्र ही है। संविधान की मूल भावना (जिसमें कहीं किसी राजनीतिक दल का जिक्र नहीं है) के विपरीत यह देश आज राजनीतिक दलों के चंगुल में फंस चुका है। जनप्रतिनिधि आज जनता के नहीं, बल्कि अपनी पार्टियों के प्रतिनिधि बन चुके हैं और इसीलिए उन्हें जनता की समस्याओं से कोई मतलब ही नहीं रह गया है। भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि राजनीतिक दलों का आपसी विरोध स़िर्फ चुनाव मैदान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि वह अक्सर राष्ट्र के विकास में भी बाधाएं उत्पन्न करता नज़र आ जाता है। अमेरिका में डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टियां चुनाव में एक-दूसरे के विरोध में जी-जान से लड़ती हैं, लेकिन देश को लेकर सभी के अंदर एक जैसी भावनाएं होती हैं। उनके अंदर इस तरह की सनक नहीं होती। यूके में कंजरवेटिव, लेबर और अब लिबरल पार्टियां भी चुनाव में एक-दूसरे का जबरदस्त प्रतिरोध करती हैं, लेकिन देश के लिए उनका नज़रिया समान होता है, पर सच तो यह है कि हमारे देश में सेक्युलर और कम्यूनल की शाश्वत लड़ाई में राजनीति के मूल मुद्दे, यानी देश का विकास और जनता की ज़रूरतें काफी पीछे छूटते जा रहे हैं,’विदेशी भगाओ-स्वदेशी अपनाओ’ की नीति पर अमल हो सबो के द्वारा देश हित से बढ़कर कुछ भी नहीं है। और रही बात राजनीति की तो वो अपने मूल-रूप में समाज-सेवा का ही वृहद् रूप है। जब-जब हम इसके वास्तविक स्वरुप को बदलने की वाहियात कोशिश करेंगे, तब-तब इसके दुष्परिणाम हम सबकों देखने को मिलेंगें। राजनीति को पूर्णत: जनसेवा के रूप मेँ स्थापित किए बगैर लोकतांत्रित व्यवस्था से भ्रष्टाचार को दूर नहीँ किया जा सकता है, इसे बिना प्रतिवाद के मान लेने में ही सबकी भलाई है।
योग्यता और पात्रता तो वक़्त तय कर ही देगा पर पहले राजनीति के प्रति आवाम की, खासकर युवाओं की मानसिकता तो सकारात्मक हो जाए। जो की सबसे पहला कदम है। हर क्षेत्र के अनुभवी व
योग्य युवा राजनीति में आकर लोकतंत्र को और भी मजबूत करें। और वर्तमान राजनीति के दौर में अपनी सक्रीय सहभागिता दे। आज राजनीति में युवाओं की कम सहभागिता के लिए हमारी शिक्षा व्यवस्था इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है! ये सच है और वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में इस मुद्दे को ध्यान में रखते हुए कुछ बदलाव अपरिहार्य है। बस राजनीति में कोई डर कर नहीं बल्कि आत्मविश्वास के साथ जाए, एक स्पष्ट मानसिकता और विजन के साथ जाए तो ये अच्छा संकेत है। भले ही इसे फ़ौरी तौर पर थोड़ी देर के लिए ये मान लिया जाए की शायद ये प्रशासन की या अन्य उस विधा की हार है! जिस विधा का जानकार वो व्यक्ति है। पर व्यवहार में हार-जीत की यह भावना एक व्यापक लक्ष्य के सामने बौनी ही पड़ जाएंगी। क्योंकि राजनीति हो या प्रशासन; अंतिम उद्देश्य तो यही की बड़ी संख्या में आवाम के जीवन स्तर, आर्थिक स्तर और मानसिक स्तर को ऊँचा उठाया जाए और उन्हें एक बेहतर इंसान और संवेदनशील नागरिक बनने में व्यक्तिगत तौर पर सहायता की जाए। बात युवाओं के द्वारा देश की राजनीति को सकारात्मक तौर पर लेने की है और ये तब तक व्यवहारिक तौर पर सफ़ल नहीं हो सकता जब तक की वो खुद इसमे सक्रिय तौर पर भागीदारी न करे। जैसा की मैंने पहले ही बोला की राजनीति का दायरा व्यापक है! और बात हार-जीत की नहीं देश की राजनीति को सकारात्मक तौर पर लेने की और सफ़लता-असफलता की भावना से ऊपर इसमें अपना सक्रिय योगदान करने की है। वरना हमारी उपेक्षा से सरकार का एक गलत निर्णय, एक गलत संविधान संशोधन करोड़ो लोगो को नकारात्मक तौर पर प्रभावित कर सकता है! आर्थिक और सामाजिक तौर पर मजबूती उतनी मायने नहीं रखती जितनी की हमारी राजनीति के प्रति हम सबकी जागरूकता और सकारात्मक सोच, यहाँ हर कोई विधानसभा और लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ सकता पर वो जागरूक जरूर हो सकता है ताकि सही उम्मीदवार संसद तक पहुंचे। बात बस इतनी है और देश की राजनीति को सकारात्मक तौर पर लेना एक समर्पित नागरिक की पूंजी है। जिस देश में 200 सालों की गुलामी का इतिहास रहा हो वहां के नागरिकों में खासकर युवाओं में जो ही आगे जाकर देश का भविष्य है, राजनीतिक उदासीनता तर्कपूर्ण नहीं कही जा सकती।
भारतीय लोकतंत्र में व्याप्त ‘वोट आधारित’ चुनाव प्रणाली मूलतः ‘सीट आधारित’ है और संभवतः इसी प्रणाली के कारण कई बार गलत उम्मीदवार ‘सत्ता का सुख’ ले जाता है, जिसका वो वाकई हकदार नहीं होता। इस नीति से राजनितिक पार्टियों को जहाँ फायदा होता है तो वहीँ नुकसान भी कम नहीं होता और आज सबसे बड़ी बात चुनाव प्रक्रिया में जाने की युवाओं की जिद है, जो तर्कपूर्ण नहीं है।
किसी भी संगठन को चलाने के लिए सौ काम होते है, जिनमें से एक काम चुनाव-प्रक्रिया का हिस्सा बनना है। चुनाव प्रक्रिया से गुजरने के अलावा 99 काम और भी है, जिन पर किसी का ध्यान नहीं जाता। यही वर्तमान भारतीय राजनीति का बिगड़ा स्वरुप है, जो कुर्सी से शुरू होकर कुर्सी पर खत्म हो जाती है। हर चैनल पर लगभग हर दिन आजकल यह विषय छाया हुआ है, असल मुद्दा ही गौण है। खुदा-न-खास्ता अगर आज़ादी क़े वक़्त ऐसी विचारधारा हमारे नेताओं ने रखी होती, तो पता नहीं आज हम सब कहाँ और किस हाल में होते? वास्तव में ये हमारे क्षेत्राधिकार की चीज़ है ही नहीं, हमारे वश में बस इतना ही है की बतौर एक सक्रिय, विचारवान व कर्मठ सदस्य के तौर पर हम अपने-अपने संगठन को क्या दे पाते है? और उस माध्यम से विशाल-जनसमूह के जीवन-स्तर को उठाने में अपना कितना योगदान कर पाते है? इस 17वीं लोकसभा क़े लिए जिन लोगों को टिकट मिला, उन्हें बधाई औऱ जिन्हें नहीं मिला, उन्हें पहले वाले की तुलना में सौ गुना अधिक बधाई। क्योकि ये ही संगठन रूपी इमारत क़े नींव का वो पत्थर है, जिन पर सारे इमारत की बुनियाद टिकी हुई है। राजनीति अपने मूल रूप में समाज-सेवा का ही वृहद् रूप है। हम जब भी अपने स्वार्थ के लिए इसके मूल -स्वरुप को बिगाड़ेंगे, हमें असंतोष क़े अलावा कुछ नहीं मिलेगा। फ़िर चाहे हम कितनी भी ऊँची कुर्सी क्यों ना हासिल कर ले? असली जन-नायक वो नहीं, जिसने कुर्सी पा ली, बल्कि वो है जिसने अपने कार्यों से विशाल जन-समूह के दिल में जगह पा ली। कुछ लोग सियासत करते हैं कुछ लोग बगावत करते हैं, कुछ ऐसे भी हैं लोग यहाँ पर जो सिर्फ शिकायत करते हैं।
विगत कुछ वर्षों से प्रशासनिक सेवा में अपना योगदान दे चुके युवा राजनीति में अपनी सक्रीय सहभागिता निभा रहे है, मुझे ये बहुत ही उम्दा संकेत लगता है। इसी क्रम में हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ गौतम कृष्ण जो प्रशासनिक सेवाओं में अपना बेहतर योगदान दे चुके है और दिल्ली में अन्ना हजारे के आंदोलन से ही अपने राजनीतिक जीवन की और अपने राजनीतिक सहभागिता की शुरुआत कर चुके हैं, आज हमारे उन तमाम युवाओं के लिए प्रेरणा के जीवंत स्रोत है, जो राजनीति को किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर सकारात्मक तरीके से नहीं ले पा रहे। बरलहाल प्रशासनिक सेवाओं में अपना योगदान दे चुके ऐसे युवाओं से राजनीति में नवाचार की अपेक्षा है! वैसा नवाचारी बदलाव जो सबके लिए हितकारी और सुखकारी हो! हमारे इस लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य का 17वां लोकसभा चुनावी महासमर सफलतापूर्वक संपन्न हो, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ,
जय हिंद, जय भारत!

-स्नेहा किरण
पीपुल्स पॉवर प्रवक्ता, बिहार