दीपक रखे जला कर हमने- स्नेहलता नीर

दीपक रखे जला कर हमने,
कोई आकर बुझा गया।
छीन लिया हमसे उजियारा,
कुटिल तिमिर दे चला गया।

हुए आधुनिक लोग जगत के,
पत्थर हृदय जमाना है।
भोले-भाले इंसानों को
मिलता नहीं ठिकाना है।
जीवन-पथ में कदम-कदम पर,
हमें रात-दिन छला गया।
दीपक रखे जला कर हमने,
कोई आकर बुझा गया।

किस पर करें भरोसा हमको,
समझ नहीं कुछ आता है।
जिसे समझते हैं हम अपना,
वही घाव दे जाता है।
खेवनहार नाव जीवन की,
स्वयं भँवर में डुबा गया।
दीपक रखे जला कर हमने,
कोई आकर बुझा गया।

रिसने लगे घाव अब सारे,
नहीं नेह की दवा मिली।
आग लगा देती तन-मन में,
घुली बैर से हवा मिली।
बहता सिंधु दृगों से खारा,
सहनशक्ति को गला गया।
दीपक रखे जला कर हमने,
कोई आकर बुझा गया।

छिन्न-भिन्न हैं अभिलाषाएँ,
पुष्प आस के मुरझाए।
मन की सरिता में पीड़ा का,
‘नीर’ उमड़ता उफनाए।
टूट गया जब तन का पिंजरा,
अपना जाया जला गया।
दीपक रखे जला कर हमने,
कोई आकर बुझा गया।

-स्नेहलता नीर