आँखों  की  कस्तियों में: रकमिश सुल्तानपुरी

वो  तोड़कर दिल किधर  गए हैं।
जो  मेरी  चाहत  से डर  गए  हैं।

हमारी  आँखों  की  कस्तियों में,
तमाम   चेहरे   उतर    गए   हैं।

मैं    पूछता   हूँ   जबाब   उनसे,
सवाल   हमसे  जो कर  गए हैं। 

थे वो भी  पत्ते  शज़र के  हिस्से,
जो   टूट  करके बिखर  गए  हैं।

हमें अभी  भी  फ़िकर है उनकी,
जो  इश्क़  करके  सुधर  गए हैं । 

उन्हें   सताती   है  याद  घर  की,
जो   काम  करने  शहर  गए  हैं।

जहां किराये का घर है रकमिश,
दो चार  दिन  हम  ठहर  गए हैं।

रकमिश सुल्तानपुरी