एक दिन: श्वेता मिश्रा

एक दिन जब झुर्रियाँ ओर गहरा जाएंगी
गरदन कि खाल लटकने लगेगी
हाथों कि नीली नसें साफ़ साफ़ नजर आने लगेंगी
जब ज़िंदगी अपने अधिकांश हिसाब ले चुकी होगी

उस वक़्त के लिए वादा किया था तुमने
कि कभी पहाड़ों के मध्य उस झील के किनारे
अपने हिस्से कि बची ज़िंदगी बिताएँगे!
तिरछी छत ओर चिमनी वाले उस घर के किसी
कोने में मैं उस रोज हमारे लिए चूल्हा जलाऊँगी
तुम जंगलों से बीन के लाना खुशी जैसा कुछ
वहीं आँगन में हम प्रेम कि सब्ज़ियाँ उगाएँगे

आषाढ कि बारिश से इस बंजर जवानी का
बच्चों कि तरह भीगकर हिसाब चुकता करेंगे
तुम्हारी आँखों के नीचे छाए काले गड्ढों को मैं
पेडों कि टहनियों में छूटे बादलो कि रूई से
साफ़ किया करूगीं.. तुम खुरपे से उलझनों
कि ज़मीन एक सी करना.. मैं पीतल के जार
मैं प्रेम का पानी भर उम्मीद को सींच दिया करूगी!

देखो!
दिन ढलने से पहले ही लौट आया करना
मैंने कभी कहा नहीं पर सूरज के संग संग
हर शाम मेरा दिल भी डूबता रहा!
कभी हुआ तो देवदार के पेड़ों पे दोनों मिलकर दिल
खुरचा करेंगे.. फिर वहीं कहीं मैं छुप जाऊँगी
तुम ढूँढ लिया करना..

सुनो! कभी कभार गुड के साथ रोटी खाकर
तारों कि चादर ओढ़ कर बचपन के क़िस्से बाँटा करेंगे!
हमारे अनगिनत अहसास जो महत्वहीन
रहे दुनियाभर के लिए उन्हें साँझा किया करेंगे
तुमसे सुनूँगी तुम्हारी ज़िंदादिली के क़िस्से
या किसी टूटे ख़्वाब कि भीनी सी आवाज

और फिर..
सर्दियों में जब कभी ओस खिड़कियों पे जमेगी
जब धुँध पूरी झील को ढक देगी तब एक पुरानी
टीस तुमसे कहूँगी और सीने का
वो ज़ख़्म भी दिखाऊँगी जिस तक सिर्फ़
तुम ही पहुँच पाए!

तुम बस एक बार अपनी रूह से मेरी रूह के
माथे को चूम लेना मैं फिर से खड़ी हो उठूँगी
पहाड़ों पे मैं तुम्हें ले चलूँगी अपनी हर इक
याद के पास बचपन की छूटी सहेलियों के घर
तुम्हें दिखाउंगी और फिर किसी रोज

जब हम और बूढ़े होंगे…
प्रेम की देवी से आशीर्वाद में थोड़ा हौसला जुटा
मेरा हाथ पकड़ ले चलना उन पवित्र पहाड़ों के
उस अतिंम छोर पे जहाँ तक पहुँच पाना केवल
सच्चे प्रेमियों के ही बस में था…

श्वेता मिश्रा