ख़्वाब से अब: निधि शर्मा

ख्वाब से अब जगने लगी हूँ
जिन्दगी को बेहतर समझने लगी हूँ

उड़ती थी कभी आसमान में
अब जमीन पर चलने लगी हूँ
लफ़्ज़ों की कोई जरूरत नहीं
चेहरो पर लगा मुखौटा
जब से पढ़ने लगी हूँ

थक जाती हूँ जब दुनिया से
खामोशियों से बातें करने लगी हूँ
दुनिया को बदलता देख
खुद को बदल रहीं हूँ

हाँ मैं वो नारी हूँ जो
भागती दुनिया में अब
अपनी पहचान बना रहीं हूँ

निधि शर्मा