बाज रही शहनाई: संजय कुमार राव

अपनों की महफिल से जैसे
टूट रही तनहाई
बाज रही शहनाई!

रुनझुन रुनझुन हौले हौले
बजती है ये पायल
पेड़ों के झुरमुट में जैसे
बोले है रे कोयल
नदिया के तीरे से आती
है जैसे पुरवाई!
बाज रही शहनाई!

धरती झंकृत बादल कंपित
मतवाला है सागर
साँवल सी गोरी भरती जब
पनघट पे है गागर
सरसों के पीले खेतों ने
ली है अब अंगड़ाई!
बाज रही शहनाई!

सांझ सकारे गांव किनारे
बंशी की धुन गाये
मस्त पपीहा बोले जैसे
बिरहन आस लगाये
गोबर से लीपी मँड़िया में
सोंधी सी महकाई!
बाज रही शहनाई!

धवल चाँदनी की आभा है
बेला की खुशबू है
रजनीगंधा की सांसों से
महकी आज जमीं है!
करे हास परिहास नवेली
ननदों से भौजाई!
बाज रही शहनाई!

अपनों की महफिल से जैसे
टूट रही तनहाई
बाज रही शहनाई!

संजय कुमार राव
[email protected]