लोकतंत्र का चौथा स्तंभ: प्रियंका गुप्ता

लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ,
आज-कल कर रहा है बड़ा हुड़दंग
भूल कर देखो, अपने ही रंग–ढंग
कलयुग में हंस पर चढ़ा है
कौवे का रंग
रात 9 बजे सजधज कर,
परदे पर जब वो आता है
नए रूप-रंग संग अभिनय कर दिखाता है
बात पते की जाने ना
बस कांव-कांव चिल्लाता है
मतभेद से मनभेद पर लाकर जनता को
शिष्टाचार का पाठ पढ़ाता है
बिका बैठा है देखो सत्ता की झोली में
चुन-चुन कर मोती खाता है
असलियत क्या है देश की,
क्या यह बेरोजगारों का हाल,
जी रही जनता कैसे, किसान क्यों है बेहाल
क्या कभी बताता है?
आरती की कवरेज तो रात-दिन दिखाता है
पीटा जाता है जब एक 14 साल का
बच्चा प्यास के कारण,
तो उसको असामाजिक तत्व बताता है
बड़े-बड़े बलवानों के सामने गर्दन अपनी झुकाता है
लोगों के दिमाग से खेलता
मसाला लगा लगा बस वेहशी खेल दिखाता है
सता के बजाए डमरू पर
घुंघरू पहन थिरकाता जाता है
पहले घर-घर पहुंच कर जो जगाता था
मानव चेतना को
आज सत्ता का साथी बराबर की आग लगाता है

प्रियंका गुप्ता
नई दिल्ली