बेटी के पिता: प्रार्थना राय

मनुष्य के अंतर्मन में पूर्ण रुप से मनुष्यता तब वास करती  जब वह एक बेटी का पिता बन जाता, बेटी के प्रति पिता की प्रतिबद्धता सदैव तटस्थ होती है।

निश्चित तौर पर एक बेटी का पिता होना सहज नहीं, अपने पुरुषत्व के समस्त उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए, अपनी पौराणिकता के स्वाभिमान की छत्रछाया में बेटी का भरण पोषण करना एवं अपने स्वाभिमान का अवलंबन करा कर बेटी को आत्मनिर्भर बनाना, पिता के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होती।

निःसंदेह एक बेटी के पिता अपने आप को सहज नहीं कर पाते, पिता चाहते हैं बेटी के जीवन के कैनवास पर सतरंगी रंग बिखरे, फिर भी कहीं न कहीं रिक्त रह जाता है।

पिता का पुरुषोचित तब नीरस हो जाता , जब परंपरा की बेदी पर चढ़ती बेटी विदा होती, सरल नहीं होता स्वयं को संभालना पिता के अंतर्मन में उमड़ते प्रश्नों के सैलाब, व्यक्तित्व को झकझोरती एवं अतःकरण में कराहती अभिलाषा।

स्वयं के हृदय को आश्वस्त कर अपने अंदर के पिता को समझाते हुए, बेटी कहीं और नहीं अपने घर को जा रही, बेटी की भविष्य की चिंता भ्रमित करने लगती, अपने आंखों में आंसुओं के सैलाब को समेटकर, बेटी को सुखी पूर्वक विदा करते हुए स्वयं को संभालना कितना जटिल होता एक पिता ही जानते है।

अंततः पिता के लिए सरल नहीं होता
बेटी के विछोह का दंश झेलना

प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश