वंदना सहाय
“क्या कहती हो? दिवाली आ रही है, लोग बिजली मिस्री बुला, अपने घरों पर सीरीज़ बल्ब लगवा रहे हैं। हमारा घर भी हमारी तरह ही पुराना हो गया है, थोड़ी रंगत वापस आ जाएगी। इस दिवाली पर…”
दीनदयाल जी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाए थे कि उनकी पत्नी बोल उठीं- “क्या करोगे मकान को रौशन कर के? मन का अँधेरा तो दूर न होगा, बच्चे जो इस साल भी दिवाली पर नहीं आ रहें हैं। मन कितना बुझा-बुझा सा लग रहा है। मैं ही कुछ दीये भगवान के सामने और घर के आगे जला लूँगी। दूसरों की देखादेखी क्या करनी, चाय पीओगे?”
“ना, मन नहीं कर रहा। मन भारी-सा हो गया है। जानती हो, असली दिवाली तो वही होगी, जिस दिन हमारे बच्चे हमारे साथ हमारे घर पर होगें। मानता हूँ, उनकी भी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं, पर मन नहीं मानता। काश! कुछ समय निकाल वे यहाँ आते तो अंधकार पंख लगा कर उड़ जाता और मन उजाले से भर जाता। दिल में फुलझड़ियाँ फूटतीं। घर का सन्नाटा पटाखों की आवाज बन फूटता और दिवाली की मिठाई की मिठास मन के डिब्बे में बंद हो जाती!