विभा के पति का निधन हाल में ही हुआ था और अभी तक वह अपने को सामान्य नहीं कर पायी थी। वह उदासी में डूबी बाहर बरामदे में बैठी थी कि उसने देखा दो किन्नर अहाते के भीतर चले आ रहे हैं। ये दोनों वही थे जो पिछले साल उसकी पोती के जन्म की खुशी में खूब नाचे थे। वह सोचने लगी कि ऐसे दुःख-भरे दिनों में इन्हें किसने गलत खबर दे दी कि घर में कोई खुशी हुई है? ये क्यों आ रहे हैं?
अब तक वे दोनों आकर उसके सामने खड़े हो गये थे, पर आज उनके चेहरे पर कोई चंचलता नहीं थी।
उन्हें खामोश देखकर विभा ने ही बुझे स्वर में पूछा,
“किसी ने तुम्हें बताया नहीं कि ये नहीं रहे?”
उनमें से एक ने कहा, “हाँ दीदी! हमें मालूम हुआ। मुहल्ले के लोगों ने हमें बताया।”
फिर कुछ ठहरकर वह बोला, “दीदी! इसीलिए तो हम आये हैं। हमें सुनकर बहुत दुःख हुआ कि यह क्या हो गया तुम्हारे साथ? ईश्वर ने क्या कर दिया? अपने को सँभालो और क्या कहें हम?”
इतना कहकर वे दोनों दो पल ठहरे। फिर उनके हाथ जुड़े और वे बोले, “अच्छा दीदी! नमस्ते!”
वे वापस जाने के लिए मुड़े। विभा उनके सहानुभूतिपूर्ण वचन सुनकर भीतर से द्रवित हो गयी थी। उसने कहा,
“रुको-रुको! ऐसे मत जाओ। तुम तो अपने रोजगार पर निकली हो। सुबह-सुबह खाली हाथ मत जाओ।”
विभा ने सौ रुपये का नोट उनके हाथ में पकड़ा दिया और सोचने लगी कि क्या कोई इनकी संवेदनशीलता को समझ सकता है? जिसके यहाँ वे खुशी में नाचने-गाने आये, उसीके यहाँ वे गम में भी शरीक होने चले आये। समाज ने जिन्हें किसी रिश्ते योग्य नहीं समझकर सदियों से बहिष्कृत कर रखा है, उन्होंने ही उसके साथ आज जो रिश्ता बना लिया, उसे क्या नाम दे वह? और आज तो अपनी सहृदयता का परिचय देकर वे सचमुच ही उसकी नजर में बहुत ऊपर प्रतिष्ठित हो गये थे- स्त्रीलिंग-पुंल्लिंग से ऊपर।
-अंजना वर्मा
कवि-कथाकार एवं गीतकार अंजना वर्मा का नाम समकालीन हिन्दी रचना-परिदृश्य का एक जाना-पहचाना नाम है। कविता, कहानी, गीत, समीक्षा, यात्रावृत्त एवं बाल साहित्य में इनकी डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। पाँच वर्षों तक इन्होंने ‘चौराहा’ पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन किया। इनकी रचनाओं के अनुवाद अंग्रेजी, मराठी तथा कन्नड़ भाषाओं में हो चुके हैं। इन्हें कई सम्मानों से विभूषित किया गया है। संप्रति मुजफ्फरपुर, बिहार में निवास करते हुए साहित्य-सृजन में संलग्न।