Saturday, March 15, 2025
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उत्तराखंड का प्रसिद्ध ऋतु पर्व ‘फूल देई’

हिन्दू नव वर्ष यानी चैत्र महीने की 1 पैट (गते) को उत्तराखंड के कुमाऊं में मेष संक्रांति, फूल संक्रांति और फूल देई के नाम से मनाया जाता है। इस वर्ष बसन्त ऋतु के स्वागत का यह त्यौहार फूल देई 14 मार्च 2025 को समूचे उत्तराखंड में बड़ी धूम-धाम से मनाया जा रहा है।

फूल संक्रांति यानी फूल देई का सीधा संबंध भी प्रकृति से है। इस समय चारों ओर छाई हरियाली और नाना प्रकार के खिले फूल प्रकृति के यौवन में चार चांद लगाते हैं। वैसे भी उत्तराखंड की धरती पर अलग-अलग ऋतुओं के अनुसार पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं। ये पर्व एक ओर हमारी संस्कृति को उजागर करते हैं, तो दूसरी ओर प्रकृति के प्रति पहाड़ के लोगों के सम्मान और प्यार को भी दर्शाते हैं। इसके अलावा पहाड़ की परंपराओं को कायम रखने के लिए भी ये पर्व-त्योहार खास हैं।

हिन्दू कैलेंडर के अनुसार चैत्र महीने से ही नव वर्ष शुरू होता है। इस नव वर्ष के स्वागत के लिए बसन्त के आगमन से ही पूरा पहाड़ बुरांस की लालिमा और गांव आडू, खुबानी के गुलाबी-सफेद रंगो से भर जाता है। खेतों में सरसों खिल जाती है तो पेड़ों में फूल भी आने लगते हैं।

ऐसे मनाई जाती है फूलदेई

इस दिन छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्याेंलीं (कहीं इसे फ्यूंली (Primrose) भी कहा जाता है), बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं और एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर लोकगीतों को गाते हुये जाते हैं और देहरी का पूजन करते हुये पास-पड़ोस के घरों में जाकर उनकी दहलीज पर फूल चढ़ाते हैं और सुख-शांति की कामना करते हुए गाते हैं, और प्रकृति को इस अप्रतिम उपहार सौंपने के लिये धन्यवाद भी अदा करते हैं।

” फूलदेई, छम्मा देई.…

जतुकै देला, उतुकै सही ।

देंणी द्वार, भर भकार,

सास ब्वारी, एक लकार,

यो देलि सौ नमस्कार ।

फूलदेई, छम्मा देई.…

जतुकै देला, उतुकै सही । ”

इसके बदले में उन्हें परिवार के लोग गुड़, चावल व रुपये देते हैं। इस चावल व गुड़ आदि से शाम को चावल पीसकर इसके आटे का हलवा-‘सई भी बनाया जाता है, और विशेष रुप से प्रसाद स्वरुप ग्रहण किया जाता है। इस दिन से लोकगीतों के गायन का अंदाज भी बदल जाता है, होली के फाग की खुमारी में डूबे लोग इस दिन से ऋतुरैंण और चैती गायन में डूबने लगते हैं। ढोल-दमाऊ बजाने वाले लोग जिन्हें बाजगी, औली या ढोली कहा जाता है। वे भी इस दिन गांव के हर घर के आंगन में आकर इन गीतों को गाते हैं। जिसके फलस्वरुप घर के मुखिया द्वारा उनको चावल, आटा या अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है।

नैनीताल में प्रकृति स्वयं मना रही है फूलदेई

पहाड़ों के साथ प्रकृति का स्वर्ग कही जाने वाली सरोवरनगरी नैनीताल में ऋतुराज बसंत का आगमन हो गया है। प्रकृति जैसे स्वयं आज फूलदेई मना रही है। फूल तो फूल कलियां भी जैसे घूंघट खोल मुस्कुराती, तितलियों-भंवरों को रिझाती नजर आ रही हैं। पतझड़ में रीते हुए चिनार-पॉपुलर के पेड़ों पर जैसे मंद-मंद मुस्कान लिये हर ओर हरियाली छा गयी है। कफुवा यानी बुरांश के साथ प्योंली ओर पयां यानी पद्म प्रजाति के पेड़ों के साथ आड़ू, पुलम, खुबानी व आलूबुखारा पर भी गुलाबी वासंती बयार छायी हुई है। इन फूलों की खुशबू से सारा चमन महका हुआ है। और यह सब जल्द शुरू होने जा रहे भारतीय नव वर्ष के स्वागत को जैसे तत्पर हैं। ऐसे मौसम-प्राकृतिक सुंदरता को अपनी आंखों से निहारना चाहते हैं तो पहाड़ पर आइए, नैनीताल आइये।

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