गूंज: मेरे एकांत की- नेहा सिंह

मेरे पन्नों के पलटने से जो आवाज गूंज उठती थी, कभी आज वो कहीं ख़ामोश सी बंद दरवाजे में दस्तक दे रही थी। मानो बड़े अरसे बीत गए हो उस आवाज से बात किए। मई की कड़कती धूप, थकान से भरी मायूसी और ढेरों सारे सवालों के संजमंजस में घूमता मेरा मन बस एक ही बात कह रहा था- मेरा एकांत कहीं खो सा गया है मेरी ढलती उम्र के साथ।
शाम का वक्त है आसमान में सूर्य अपनी लालिमा बिखेरे निस्तेज होने को है, पक्षियों झुंड बनाकर कलरव करती उड़ती हुई अपने घौसलो में लौट आने को आतुर है और मैं इन सबसे परे डूबी हुई हूँ, उन यादों में जब मैं इस घर में कैद तस्वीरों की भांति समाज के डर, परिवार की ख्वाहिशों के बोझ तले जिंदगी के सफर में बिना कुछ सोचे समझे बस भागती जा रही थी। मगर अचानक ये सफर तेज रफ्तार की तरह न जाने मुझे कब उस जमाने में ले गया जहां मैं खुद को खोज रही थी।
यह था मेरी जिंदगी का वह मोड़ जहां एक तरफ लोकडाउन में कोरोना से इंसानों में डर था तो दूसरी तरफ मेरे एकांत की एक गूंज‌ सी। जैसे मानो रोशनी भी बंद कमरे में अंधेरे की चादर ओढ़े मेरी प्रतीक्षा कर रही हो। उस अंधेरे में कैद मेरी डायरी के पन्नों पर ढलती उम्र के पड़ाव से मिट्टी की धूल सी जम गई थी। जब उन पन्नों को टटोला तो लिखी पाई खूबसूरत सी दुनिया की कहानी, जिसमें वह तीन लोग जो कहानी के किरदार भी है और नायक भी। वह कोई और नहीं मैं, मेरा पति और मेरा तीन साल का बेटा और हमारा खुशियों से भरा जीवन जिसमें दुख भी हम थे और सुख भी हम। जैसे मानो आसमान में ढेर सारे तारों की भांति जगमगा उठे हो।
पहले की तरह मानो शिरीष के वृक्ष श्वेत फूलों से लद गए हो, छोटे छोटे फूलों की भीनी-भीनी सुगंध जैसे हमारे प्रेम को महसूस कर रही हो। चारों ओर पक्षियों की चहचहाहट हैं, जिसे वह दुनिया को हमारे प्रेम की गाथा सुना रही हो, कह रही हो की प्रेम अगर आत्मा से किया जाए तो दो लोग दूर रहकर भी साथ जीते हैं, हंसते हैं, बोलते हैं और ऐसा प्रेम साथी के सामीपय का मोहताज नहीं होता और ना ही ऐसे प्रेम में कोई स्वार्थ निहित होता है और ना जाने यह सब सोचते-सोचते कब आंख लग गई। मगर उठी तो खुद को कोरोना की बीमारी से जूझते जिंदगी के सफर में लोगो के मन की एक गूंज की तरह पाया। जिन्हें नए सफर में ले जाना बेहतर था और वहीं दूसरी तरफ मेरे एकांत की एक गूंज सी थी, जो मुझे जीने का नया मौका दे रही थी।

-नेहा सिंह
चंडीगढ़