ईसुरी बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध लोक कवि हैं, उनकी रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का चित्रण है। उनकी ख्याति फाग के रूप में लिखी गई रचनाओं के लिए सर्वाधिक है, उनकी रचनाओं में बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता और सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रसीली रागिनी से जन मानस को मदमस्त करने की क्षमता है।
बुंदेली बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह कहना कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली है, लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं, जो सादियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंगला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में राजाओ के परस्पर व्यवहार में बुंदेली में पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख तक सुलभ हैं।
बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है। वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र में अनेक जनजातियां निवास करती थीं। इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में भी बुंदेली बोली का उल्लेख मिलता है। सन एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं। जिसमें देशज शब्दों की बहुलता थी।
पं किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली प्राकृत शौरसेनी तथा संस्कृत जन्य है। बुंदेली की अपनी चाल, प्रकृति तथा वाक्य विन्यास की अपनी मौलिक शैली है। भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणों की भाषा विंध्येली प्राचीन बुंदेली ही थी। आशय मात्र यह है कि बुंदेली एक प्राचीन, संपन्न, बोली ही नही परिपूर्ण लोकभाषा है । आज भी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में घरो में बुंदेली खूब बोली जाती है। क्षेत्रीय आकाशवाणी केंद्रो ने इसकी मिठास संजोई हुयी हैं।
ऐसी लोकभाषा के उत्थान, संरक्षण व नव प्रवर्तन का कार्य तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों, संस्थाओं के पढ़े लिखे विद्वानों के द्वारा बुंदेली में नया रचा जाये। बुंदेली में कार्यक्रम हों। जनमानस में बुंदेली के प्रति किसी तरह की हीन भावना न पनपने दी जाये, वरन उन्हें अपनी माटी की इस सोंधी गंध, अपनापन, बोली हुई भाषा के प्रति गर्व की अनुभूति हो।
प्रसन्नता है कि बुंदेली भाषा परिषद, गुंजन कला सदन, वर्तिका जैसी संस्थाओं ने यह जिम्मेदारी उठाई हुई है। प्रति वर्ष 1 सितम्बर को स्व. डॉ पूरन चंद श्रीवास्तव के जन्म दिवस के सुअवसर पर बुंदेली पर केंद्रित अनेक आयोजन गुंजन कला सदन के माध्यम से होते हैं।
आवश्यक है कि बुंदेली के विद्वान लेखक, कवि, शिक्षाविद स्व. पूरन चंद श्रीवास्तव के व्यक्तित्व, विशाल कृतित्व से नई पीढ़ी को परिचय कराया जाता रहे। जमाना इंटरनेट का है, इस कोरोना काल में सांस्कृतिक आयोजन तक यू ट्यूब, व्हाट्सअप ग्रुप्स व फेसबुक के माध्यम से हो रहे हैं, किंतु बुंदेली के विषय में, उसके लेखकों कवियों, साहित्य के संदर्भ में इंटरनेट पर जानकारी नगण्य है।
स्व. पूरन चंद श्रीवास्तव का जन्म 1 सितम्बर 2916 को ग्राम रिपटहा, तत्कालीन जिला जबलपुर अब कटनी में हुआ था। कायस्थ परिवारों में शिक्षा के महत्व को हमेशा से महत्व दिया जाता रहा है, उन्होंने अनवरत अपनी शिक्षा जारी रखी और पीएचडी की उपाधि अर्जित की। वे हितकारिणी महाविद्यालय जबलपुर से जुड़े रहे और विभिन्न पदोन्तियां प्राप्त करते हुये प्राचार्य पद से 1976 में सेवानिवृत हुये। यह उनका छोटा सा आजीविका पक्ष था। पर इस सबसे अधिक वे मन से बहुत बड़ साहित्यकार थे।
बुंदेली लोक भाषा उनकी अभिरुचि का प्रिय विषय था। उन्होंने बुंदेली में और बुंदेली के विषय में खूब लिखा। रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड का गौरव हैं। वे संभवतः विश्व की पहली महिला योद्धा हैं, जिनने रण भूमि में स्वयं के प्राण न्यौछावर किये हैं। रानी दुर्गावती पर श्रीवास्तव जी का खण्ड काव्य बहु चर्चित महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है। भोंरहा पीपर उनका एक और बुंदेली काव्य संग्रह है। भूगोल उनका अति प्रिय विषय था और उन्होने भूगोल की आधा दर्जन पुस्तकें लिखीं, जो शालाओ में पढ़ाई जाती रही हैं।
इसके सिवाय अपनी लम्बी रचना यात्रा में पर्यावरण, शिक्षा पर भी उनकी किताबें तथा विभिन्न साहित्यिक विषयों पर स्फुट शोध लेख, साक्षात्कार, अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशन आकाशवाणी से प्रसारण तथा संगोष्ठियो में सक्रिय भागीदारी उनके व्यक्तित्व के हिस्से रहे हैं। मिलन, गुंजन कला सदन, बुंदेली साहित्य परिषद, आंचलिक साहित्य परिषद जैसी अनेकानेक संस्थायें उन्हें सम्मानित कर स्वयं गौरवांवित होती रही हैं।
वे उस युग के यात्री रहे हैं, जब आत्म प्रशंसा और स्वप्रचार श्रेयस्कर नहीं माना जाता था , एक शिक्षक के रूप में उनके संपर्क में जाने कितने लोग आते गये और वे पारस की तरह सबको संस्कार देते हुये मौन साधक बने रहे।
उनके कुछ चर्चित बुंदेली गीत उधृत कर रहा हूँ,
कारी बदरिया उनआई, हां काजर की झलकार
सोंधी सोंधी धरती हो गई, हरियारी मन भाई,
खितहारे के रोम रोम में, हरख-हिलोर समाई
ऊम झूम सर सर-सर बरसै, झिम्मर झिमक झिमकियाँ
लपक-झपक बीजुरिया मारै, चिहुकन भरी मिलकियां
रेला-मेला निरख छबीली-टटिया टार दुवार,
कारी बदरिया उनआई,हां काजर की झलकार
औंटा बैठ बजावै बनसी, लहरी सुरमत छोरा
अटक-मटक गौनहरी झूलैं, अमुवा परो हिंडोरा
खुटलैया बारिन पै लहकी त्योरैया गन्नाई
खोल किवरियाँ ओ महाराजा सावन की झर आई
ऊँचे सुर गा अरी बुझाले, प्रानन लगी दमार,
कारी बदरिया उनआई, हां काजर की झलकार
मेंहदी रुचनियाँ केसरिया, देवैं गोरी हाँतन
हाल-फूल बिछुआ ठमकावैं भादों कारी रातन
माती फुहार झिंझरी सें झमकै लूमै लेय बलैयाँ
घुंचुअंन दबक दंदा कें चिहुंकें, प्यारी लाल मुनैयाँ
हुलक-मलक नैनूँ होले री, चटको परत कुँवार,
कारी बदरिया उनआई, हाँ काजर की झलकार
इस बुंदेली गीत के माध्यम से उनका पर्यावरण प्रेम स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसी तरह उनकी एक बुन्देली कविता में जो दृश्य उन्होंने प्रस्तुत किया है वह सजीव दिखता है,
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां,
ढील ढाल हर धरौ धरी पर, पोंछौ माथ पसीन
तपी दुफरिया देह झांवरी, कर्रो क्वांर महीना
भैंसें परीं डबरियन लोरें, नदी तीर गई गैयाँ
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां
सतगजरा की सोंधी रोटीं, मिरच हरीरी मेवा
खटुवा के पातन की चटनी, रुच को बनों कलेवा
करहा नारे को नीर डाभको, औगुन पेट पचैयाँ
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां
लखिया-बिंदिया के पांउन उरझें, एजू डीम-डिगलियां
हफरा चलत प्यास के मारें, बात बड़ी अलभलियां
दया करो निज पै बैलों पै, मोरे राम गुसैंयां
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां
वे बुन्देली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के विद्वान थे। सीता हरण के बाद श्रीराम की मनः स्थिति को दर्शाता उनका एक बुन्देली गीत यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि राम चरित मानस के वे कितने गहरे अध्येता थे।
अकल-विकल हैं प्रान राम के बिन संगिनि बिन गुँइयाँ
फिरैं नाँय से माँय बिसूरत, करें झाँवरी मुइयाँ
पूछत फिरैं सिंसुपा साल्हें, बरसज साज बहेरा
धवा सिहारू महुआ-कहुआ, पाकर बाँस लमेरा
वन तुलसी वनहास माबरी, देखी री कहुँ सीता
दूब छिछलनूं बरियारी ओ, हिन्नी-मिरगी भीता
खाई खंदक टुंघ टौरियाँ, नादिया नारे बोलौ
घिरनपरेई पंडुक गलगल, कंठ-पिटक तौ खोलौ
ओ बिरछन की छापक छंइयाँ, कित है जनक-मुनइयाँ ?
अकल-विकल हैं प्रान राम के बिन संगिनि बिन गुँइयाँ
उपटा खांय टिहुनिया जावें, चलत कमर कर धारें
थके-बिदाने बैठ सिला पै, अपलक नजर पसारें
मनी उतारें लखनलाल जू, डूबे घुन्न-घुनीता
रचिये कौन उपाय पाइये, कैसें म्यारुल सीता
आसमान फट परो थीगरा, कैसे कौन लगावै
संभु त्रिलोचन बसी भवानी, का विध कौन जगावै
कौन काप-पसगैयत हेरें, हे धरनी महि भुंइयाँ
अकल-विकल हैं प्रान राम के बिन संगिनि बिन गुँइयाँ
बुंदेली भाषा का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है, अब वैश्विक विस्तार के सूचना संसाधन कम्प्यूटर व मोबाइल में निहित है, समय की मांग है कि स्व. डा पूरन चंद श्रीवास्तव जैसे बुंदेली के विद्वानों को उनका समुचित श्रेय व स्थान, प्रतिष्ठा मिले व बुंदेली भाषा की व्यापक समृद्धि हेतु और काम किया जाये।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
शिला कुंज, नयागांव,
जबलपुर, मध्य प्रदेश-482008