कभी जिगर में कभी आँख में , कभी दिल में
‘ज़िया’ ने रक्खे हरिक गाह काँच के टुकड़े
शेरो- शायरी का दौर यूं तो बहुत पुराना है ,लेकिन कहने वाले तो चंद ही हैं जिनके कहे कलाम आज भी ज़ुबानों पर बेसाख़्ता आ ही जाया करते हैं। जब से हिंदुस्तानी ज़ुबान की इशाअत हुई है, ग़ज़ल को हिदुस्तान में एक नया मुक़ाम मिल है, या यूँ कहिए ग़ज़ल की मक़बूलियत बढ़ी है।
देश में उर्दू की साहित्य अकादमियों ने उर्दू की इस रवायत को फलने-फूलने देने की हमेशा पुरज़ोर कोशिशें की हैं। इसी कोशिश में मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी ने देश के उभरते ग़ज़लगो का ग़ज़ल का पहला मजमुआ शाया किया है। यह वाकई एक जवाबदेही की बात है कि ज़बान को बढ़ावा देने के लिए उभरते शायरों को ऐसा मौक़ा देना कि उनके चाहने वाले उन्हें बंद जिल्द में पढ़ सकें। सुभाष पाठक ‘ज़िया’ मध्य प्रदेश के शिवपुरी ज़िले के गांव समोहा से आते हैं, गांव समोहा की मिट्टी और हवा में बहती ताज़गी का एहसास आपकी शायरी कराती है।
सुभाष पाठक ‘ज़िया’ को लगभग 6 सालों से पढ़ रही हूँ और लगातार आपके कलाम में आती गहराई को महसूस कर रही हूँ। आपकी ग़ज़ल की ख़ासियत उसके सादा कहन में गहरी बात जो कि शायरी की सबसे अहम ख़ासियत है, लेकिन जिसे पाने के लिए बड़ी मशक्क़त की ज़रूरत है। आपकी शायरी रवायत के साथ नयेपन का बेजोड़ नमूना है।
ख़ुद ग़ज़ल कहने के नाते यह कह सकती हूं कि एक शेर कहना कितना मुश्किल है, तब जब ज़मीन आपकी खुद की हो। शेर के लिए यह भी कहा जाता है कि शेर या तो होता है या नहीं होता है। बहरहाल जब ज़मीन आपकी हो तो चुनौती और भी बढ़ जाती है। ‘ज़िया’ के साथ उनकी शायरी में जो ताज़गी और नयापन झलकता है वो आपकी ख़ुद की ज़मीन पर शेर कहना है, यानी रदीफ़, काफ़िया की नयी ज़मीन तैयार कर ग़ज़ल कहना।
‘दिल धड़कता है’ जिस ग़ज़ल के शीर्षक पर आपका यह मजमुआ शाया हुआ है वह आपकी बेहद पसंद की जाने वाली ग़ज़लों मे से है। इसका एक शेर-
लिखा था जिस पे मेरा नाम चॉक से तुमने
जो देखता हूँ वो दीवार, दिल धड़कता है
कितनी खूबसूरती से लफ़्ज़ ‘चॉक’ को शामिल किया गया है। एक मंज़र सामने दिखने लगता है, और उस पर कमाल की रदीफ़ है ‘दिल धड़कता है’। रदीफ़ की बात करें तो आपकी रदीफ़ें चौंकाती हैं, साथ ही उनका अशआर में इस्तेमाल और भी हैरान करता है, जैसे
तू चाहता है जो मंज़िल की दीद, साँकल खोल
सदाएं देने लगी हैं उमीद, साँकल खोल
इस रदीफ़ के साथ क्या ही शानदार मतला हुआ है। इसी ग़ज़ल का खूबसूरत शेर
गया न छत पे तू तो चाँद आ गया दर पे
लगा गले से मनाले तू ईद साँकल खोल
बेहद मुश्किल रदीफ़ को कितनी खूबसूरती से इस ग़ज़ल में पिरोया गया
हमारा दर्द ज़रा सख़्त था कि जैसे बर्फ़
ग़मों की आँच से गलने लगा कि जैसे बर्फ़
इसी ग़ज़ल का एक लाजवाब शेर
हरेक मोड़ पे वो रंग रूप बदले है
अभी है आब, कभी संग था, कि जैसे बर्फ़
अब रदीफ़ बर्फ़ तो बर्फ़ ही है जिसका मानी ठंड से ही लिया जाएगा, उस एक मानी को अलग नज़रिए से पेश करना और हर शेर में उसका सटीक इस्तेमाल करना ही फ़नकारी है।
एक खूबसूरत शेर इज़हारे मुहब्बत का देखिए
इसे तू शक न समझ ये तो प्यार है मेरा
कोई तुझे कहे महबूब रश्क़ होता है
इसका मतला भी देखें
सुनो! ज़रा सा नहीं खूब रश्क़ होता है
किसी से तुम जो हो मनसूब रश्क़ होता है
ज़िया की शायरी की एक और ख़ास बात उर्दू के आसान लफ़्ज़ों का इस्तेमाल जो ग़ज़ल से मुहब्बत करने वालों को आसनी से समझ आते हैं, ऐसे में ग़ज़ल की नाज़ुकी तो बनी रहती है, साथ ही सरल कहन का लुत्फ़ आम पाठक भी उठा सकते हैं।
आपकी ‘दिल धड़कता है’ की ग़ज़लों में उम्दा और ताज़ातरीन रदीफ़ों का ज़िक्र न हो तो आपको पढ़ना बेमानी है। एक और उम्दा रदीफ़ की ग़ज़ल का मतला देखें-
न बैठ चुप तू सुना दर्द, दर्द का क़िस्सा
किसी बहाने उठा दर्द, दर्द का क़िस्सा
एक उम्दा शेर देखें कि
शबे फ़िराक़ उतरने लगी ढलान से जब
जवान होने लगा दर्द, दर्द का क़िस्सा
एक ग़ज़ल जिसके तमाम शेर बहुत खूबसूरत बन पड़े हैं और ये ख़ासतौर से पसंद है
पास हैं हम कि दूर क्या समझें
फ़ासिला है तो एक करवट का
कितना कुछ बोल जाता है ये एक शेर। एक और शेर देखें कि
वो तितलियाँ बना रहा था इक वरक़ पे सो
इक फूल इक वरक़ पे बनाना पड़ा मुझे
इस शेर की गहराई को सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। जब शेर की गहराई सिर्फ़ महसूस की जाए उसका तर्जुमा न किया जा सके तो समझिये यही रूहदारी है। आपकी एक ग़ज़ल का ये शेर जो मुझे बेहद पसंद है-
देख बेवा सी लगती है दीवार
तेरी तस्वीर क्या उतारी है
हिज्र की बाकमाल बानगी की है। एक और उम्दा रदीफ़ की ग़ज़ल का मतला यूँ है कि
लहू गिरे तो करें वाह काँच के टुकड़े
हमारे पाँव के हमराह काँच के टुकड़े
इस ग़ज़ल का मकते का शेर देखें कि
कभी जिगर में कभी आँख में , कभी दिल में
‘ज़िया’ ने रक्खे हरिक गाह काँच के टुकड़े
यूं तो इस मजमुये की सभी ग़ज़लें अपने कहने में उम्दा ग़ज़लें हैं किसे कोट करें, किसे छोड़ें, लेकिन एक ग़ज़ल का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूंगी जो बहुत से ग़ज़ल गायकों ने भी गाई है-
कोई दामन कोई शाना होता
मेरे अश्कों का ठिकाना होता
इसके अशआर इतने खूबसूरत हैं कि हर दिल की आवाज़ लगते हैं। सुभाष पाठक ‘ ज़िया’ की अब तक कईं ग़ज़लें गाई जा चुकीं हैं। आप देश के मुशायरों में भी शिरकत करते हैं और सराहे जाते हैं। आप यूँ ही तरक्की करते रहें और जल्दी ही आपका दूसरा ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो।
रूपेंद्र राज तिवारी
समीक्षक- रूपेंद्र राज तिवारी
शायर- सुभाष पाठक’ज़िया’
किताब- दिल धड़कता है
प्रकाशन- शेरी अकादमी भोपाल
वर्ष- 2020
मूल्य- 300 रुपये