गंगा के बिना हिन्दुओं और उत्तर भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। उत्तर भारत की जीवनदायिनी गंगा के बारे में इतनी अधिक चर्चा होती है कि उसके उद्गम, महत्व, उसके किनारे बसे तीर्थों-शहरों, मेलों व त्योहारों के बारे में हम सब बहुत कुछ जानते हैं।
कोविड-19 की वजह से जन जीवन और कल कारखानों के बंद होने से स्वच्छ हुई गंगा के बारे में हमारे धर्मग्रंथ में क्या हैं, आइए आज इस पर चर्चा करते हैं।
हमारे ऋषि मुनि गंगा के महत्व को तो जानते ही थे लेकिन साथ में जन सामान्य की आदतों को भी अच्छी तरह से समझते थे। इसलिए कि गंगा नदी का जल पवित्र और स्वच्छ रहे इसके लिए उन्होंने अपने ग्रंथों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया कि गंगा नदी के जल में और उसके किनारे क्या नहीं करना चाहिए ।
गंगा पुण्यजला प्राप्य त्रयोदश विवर्जयेत।
शौचमाचमनं चैव निर्माल्यं मलघर्षणं॥
गात्रसंवाहनं क्रीडा प्रतिग्रहमथो रतिम।
अन्यतीर्थरतिं चैव अन्यतीर्थप्रशंसनम॥
वस्त्रत्यागमथाघातं सन्तारं च विषेशतः।
नाभ्यंगित प्रविशेच्च गंगाया न मलार्दित:॥
न जल्पन्न मृषा वीक्षन्न वदन्न्नृतं नर:।
अर्थात-
गंगा जी में मल मूत्र त्याग, मुख धोना, दंत धावन, कुल्ला करना, थूकना, निर्माल्य फेंकना, मल संघर्षण या बदन मलना नहीं चाहिए। जलक्रीडा अर्थात स्त्री पुरुषों को गंगा जल में मनोविनोद एवं रति क्रीड़ा नहीं करनी चाहिए। गंगा जी के प्रति अभक्ति अथवा अन्य तीर्थों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। पहने हुए वस्त्रों को छोड़ना, जल पर आघात करना अथवा तैरना भी नहीं चाहिए। बदन में तेल मल कर अथवा गंदे शरीर से गंगाजल में प्रवेश भी नहीं करना चाहिए। गंगा जी के किनारे पर व्यर्थ बातें, असत्य भाषण अथवा कुदृष्टि भी नहीं डालनी चाहिए।
आज हम थोड़ा सोचें कि हमारे मनीषी हजारों वर्ष पहले भी कितने दूरदर्शी, पर्यावरण सजग और प्रकृति के महत्व को समझने वाले थे। कोविड-19 के माध्यम से प्रकृति ने चेतावनी दी है कि अभी भी समय है , संभल जाइए ।
आइए आज गंगा दशहरे के अवसर पर हम संकल्प लें कि गंगा ही नहीं प्रत्येक नदी तालाब को हम गंगा समान मानकर ही स्वच्छ रखेंगे और पुण्यसलिला सतत प्रवाह बनाए रखने में योगदान देंगे।
राव शिवराज पाल सिंह
जयपुर, राजस्थान