Thursday, December 19, 2024
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हमारे हनुमान जी विवेचना भाग छह: रामचंद्र के काज संवारे

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,
बिकट रूप धरि लंक जरावा।
भीम रूप धरि असुर संहारे,
रामचंद्र के काज संवारे॥

अर्थ
श्री हनुमान जी जब लंका पहुंचे थे तो देवी सीता के आगे वो बहुत छोटा रूप धारण करके गए थे। वहीं जब उन्होंने लंका दहन किया तो विकराल रूप धारण कर लिया। असुरों का संहार करते समय हनुमान जी ने भीम जैसा विशाल रूप धारण कर लिया। श्री हनुमान ने अपने प्रभु श्री राम के काम को आसान बना दिया।

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भावार्थ
हनुमान जी अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता हैं उनके पास आठों सिद्धियां है उनके पास इस प्रकार के सिद्धि भी है कि वे अपने रूप को अत्यंत छोटा या अत्यंत बड़ा कर सकते हैं। हनुमान जी बगैर किसी बाधा के मां सीता के पास जाना चाहते थे।बगैर किसी बाधा के पहुंचने के लिए लोगों की नजरों से बचना आवश्यकता था। इसलिए माता सीता के पास जाते समय उन्होंने अपना रूप अत्यंत छोटा कर लिया था। रूप अत्यंत छोटा होने के कारण अशोक वाटिका के वृक्ष में वे आराम से छुप गए थे। उसके उपरांत राक्षसों को मारने के लिए उन्होंने अपनी सिद्धि से अपने आकार को बहुत बड़ा कर लिया। लंका को जलाने समय भी उन्होंने अपने पूंछ का आकार अत्यंत लंबा कर लिया था। यह सब उन्होंने श्री रामचंद्र जी के कार्यों को संपन्न करने के लिए किया था।

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संदेश
इससे यह संदेश मिलता है कि व्यक्ति अगर शांत और सेवा का भाव रखता है तो उसे सीधा न समझें। अपने प्रियजनों के मंगल के लिए वह रौद्र रूप भी धारण कर सकता है। वह अपने तेज से विसंगतियों का नाश कर सकता है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रूप धरि लंक जरावा।।
भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचंद्र के काज संवारे॥

हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां महान संकट में या शत्रु पक्ष से घिरने पर चमत्कारिक कृपा दिलाती है।

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विवेचना
यह चौपाई कर्म योग का बहुत अच्छा उदाहरण है। कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो। आसक्तिरहित होकर कर्म करो। महावीर हनुमान जी कर्म इसलिए करते हैं कि कर्म करना उन्हें अच्छा लगता है। हनुमान स्वामी की स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है। वे कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करते। हनुमान जी जो भी कर्म करते हैं, उसके बदले में भी कुछ भी नहीं चाहते हैं।
इन दोनों चौपाइयों का मुख्य अर्थ यह है कि हनुमान जी ने हर तरह का प्रयास करके रामचंद्र जी के कार्य को पूर्ण किया है। हनुमान जी को कार्य के प्रकार से कोई मतलब नहीं है। हनुमान जी सीधा यह जानते हैं रामचंद्र जी का जो भी कार्य है, उसको संपन्न करना है। कार्य को संपन्न करने के लिए जो भी युक्त उनकी समझ में आती है, वह उसका उपयोग करते हैं।
अगर हम आज के संदर्भ में देखें तो हनुमान जी उस सेनानायक की तरह से हैं जिसके पास सेनानायक की शक्ति के साथ साथ मंत्रिपरिषद की भी शक्ति है। श्री रामचंद्र जी का आदेश हनुमान जी के लिए कार्य है। कभी-कभी कार्य को वे स्वयं भी निर्धारित करते हैं। फिर कार्य को किस प्रकार से करना है इसके लिए वह किसी की सलाह नहीं लेते हैं। अपने बुद्धि और विवेक से वे यह निश्चित करते हैं, इस कार्य को करने के लिए क्या उचित होगा। जैसे कि रामचंद्र जी से आज्ञा पाने के उपरांत वे सीता जी की खोज में चल दिए। समुद्र को पार करके वे श्री लंका में पहुंचे। वहां पर उन्होंने सबसे पहले श्रीलंका की रक्षा करने वाली लंकिनी को दंड देकर अपने वश में किया और लंका में प्रवेश किया।

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसका बहुत सुंदर वर्णन किया है-
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार।।
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥

हनुमान जी के इस प्रहार के बाद लंकिनी के होश ठिकाने आ गए और उसने कहा-
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

लंकिनी ने अब स्वयं हनुमान जी से कहा कि आप अयोध्यापुरी के राजा रघुनाथ को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। रघुनाथ जी की जिस पर कृपा होती है, उसके लिए विष भी अमृत हो जाता है। शत्रु मित्रता करने लगते हैं। समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है। अग्नि में शीतलता आ जाती है।

वाल्मीकि रामायण में भी इस घटना का वर्णन है। वाल्मीकि जी ने कहा है कि:-
तत्प्रविश्य हरिश्रेष्ठ पुरीं रावणपालिताम्।।
विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि।
प्रविश्य शापोपहतां हरीश्वर शुभां पुरीं राक्षसमुख्यपालिताम्।
यदृच्छया त्वं जनकात्मजां सतीं विमार्ग सर्वत्र गतो यथासुखम्।।
(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/3/50-51)

लंकिनी ने हनुमान जी से कहा कि हे कपि श्रेष्ठ अब आप रावण द्वारा पारित इस पुरी में प्रवेश कर जो कुछ करना चाहते हैं करें और जानकी जी का पता करें। लंका में जाकर लंका की रक्षा करने वाली लंकिनी को मारने का निर्णय हनुमान जी का ही था। इसका उनको उचित फल प्राप्त हुआ।
हनुमान जी ने विराट रूप कई बार धारण किया है। सूक्ष्म रूप भी आवश्यकता पड़ने पर धारण किया है। जैसे कि लंका में घुसते समय उन्होंने अपना रूप छोटा कर लिया था। तुलसीदास जी लिखते हैं-
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥३॥
मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

इसी प्रकार सीता जी को देखने के लिए पेड़ पर बैठने के समय हनुमान जी ने अपना रूप छोटा कर लिया था। इस घटना को गोस्वामी तुलसीदास जी ने और बाल्मीकि जी ने दोनों ने अपने-अपने ढंग से लिखा है। वाल्मीकि जी ने लिखा है कि-
संक्षिप्तोऽयं मयाऽत्मा च रामार्थे रावणस्य च।
सिद्धिं मे संविधास्यन्ति देवाः सर्षिगणास्त्विह।।(बाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/13/64)

अर्थात श्री रामचंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए और रावण की दृष्टि से अपने को बचाने के लिए मैंने अपने शरीर को छोटा कर लिया है। इस समय देवगण और ऋषिगण मेरा अभीष्ट अवश्य पूरा करें।

इसी प्रकार जब सीता जी को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह छोटे छोटे वानर राक्षसों का क्या बिगाड़ पाएंगे, उस समय वानर राज में अपनी आकृति को बढ़ाया था और सीता जी को विश्वास दिलाया था। राक्षसों का संहार भी अपनी आकृति को बढ़ाकर कई बार किया है। रामचरितमानस में लिखा है कि हनुमान जी ने कहा कि-
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥

राक्षसों को मारकर आपको ले जाएँगे। तब रामचन्द्रजी का यह सुयश तीनो लोको में नारदादि मुनि गाएँगे।

इस बात को सुनने के बाद सीता जी को संशय हुआ कि क्या ये छोटे वानर बड़े बलवान राक्षसों का वध कर पाएंगे। सीता जी ने यह भी बताया कि उनके मन में इस बात को लेकर बहुत संदेह है। माता जानकी से ऐसा वचन सुनकर हनुमान जी ने अपने शरीर को सोने के पर्वत के समान बड़ा किया। जिसको देखने के बाद माता जानकी को विश्वास हुआ कि वानर सेना, राक्षस सेना को परास्त कर सकती है। इसके बाद फिर से हनुमान जी ने अपने शरीर को छोटा कर लिया-
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥
मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा॥
सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥

आज बहुत जन यह कह सकते हैं कि शरीर को अपनी इच्छा के अनुसार बड़ा या छोटा करना किसी के बस में नहीं है। शास्त्रों के अनुसार शरीर को छोटे करने की विद्या को अणिमा और बड़े करने की विद्या को महिमा कहते हैं। स्वयं को सूक्ष्म कर लेने की क्षमता को ही अणिमा सिद्धि कहा जाता है। यह ऐसी सिद्धि है, जिससे युक्त होकर व्यक्ति सूक्ष्म रूप धारण करके एक अणु के रूप में भी परिवर्तित हो सकता है। अणु की शक्ति से संपन्न होकर साधक उस परम शक्ति से साक्षात्कार कर लेता है। स्वयं को बड़े कर लेने की क्षमता को महिमा सिद्धि कहां जाता है। इसका अर्थ होता है, अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक इतना क्षमतावान हो जाता है कि वह प्रकृति का भी विस्तार कर सकता है।

इसके अलावा 6 शक्तियां और भी हैं। जिनमें पहली सिद्धि का नाम है “गरिमा” सिद्धि। इस सिद्धि का अर्थ भार या अडिग होने से है। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद व्यक्ति स्वयं के भार को इतना बढ़ा सकता है कि कोई भी उसे हिला नहीं पाता। ठीक वैसे, जैसे हनुमानजी की पूंछ को भीम जैसा बलशाली योद्धा भी हिला तक नहीं पाया था।

दूसरी सिद्धि का नाम “लघिमा” है । किसी भी तरह के भार से स्वयं को मुक्तकर हल्का बना लेने की क्षमता लघिमा कहलाती है। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक स्वयं को भारहीन अनुभव करते हैं। इस सिद्धि की प्राप्ति का प्रभाव यह होता है कि साधक संपूर्ण ब्रह्मांड में विद्यमान किसी भी वस्तु के पास जा सकता है और यदि इच्छा हो तो उसमें परिवर्तन की क्षमता भी रखता है।
तीसरी सिद्धि “प्राप्ति” सिद्धि कहलाती है। जैसा कि इस सिद्धि के नाम से ही स्पष्ट है कि इसकी प्राप्ति हो जाने के बाद व्यक्ति जो चाहे अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर सकता है। असंभव को संभव बना लेने की क्षमता “प्राप्ति सिद्धि” प्रदान करती है।

चौथी सिद्धि “प्राकाम्य सिद्धि” कहलाती है। प्राकाम्य का अर्थ होता है किसी भी रूप को धारण कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद साधक अपनी इच्छानुसार जब चाहे किसी भी रूप को धारण कर सकता है। वह आसमान में उड़ सकता है और पानी पर चल सकता है। पानी पर चलने के चलने के उदाहरण करीब 200 साल पुरानी पुस्तकों में मिलते हैं।

पांचवी सिद्धि “इशिता सिद्धि” कहलाती है। ईशिता का अर्थ होता है महारथ। अर्थात किसी भी कार्य पर नियंत्रण स्थापित हो जाए, इस क्षमता के साथ उसे करना। इस सिद्धि की प्राप्ति के बाद व्यक्ति आसानी से किसी भी वस्तु और साम्राज्य पर अधिकार प्राप्त कर सकता है।

छठी सिद्धि “वशित्व सिद्धि” कहलाती है। वशित्व प्राप्त करने के पश्चात साधक किसी भी व्यक्ति को अपना दास बनाकर रख सकता हैं। वह जिसे चाहें अपने वश में कर सकता हैं या किसी की भी पराजय का कारण बन सकता हैं। यह 6 सिद्धियां तथा पहले बताई गई दो सिद्धियां मिलकर अष्ट सिद्धियां बनती है। हनुमान जी को अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता भी कहा गया है। अष्ट सिद्धियों के बारे में कहा गया है-
अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा।
प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः।।

हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी ने सीता माता के सामने अपना छोटा रूप दिखाया था इसके दो अलग-अलग मतलब है पहला तात्पर्य है कि जीव कितना भी बड़ा हो परंतु अपने माता के सामने उसे छोटा ही बनके रहना चाहिए।
सूक्ष्म होने का होने का दूसरा तात्पर्य है अपने अहम को त्याग कर अपने आप को अति सूक्ष्म मानना। मगर ऐसा संभव कैसे हैं । यह तभी संभव है जब जीव यह मान ले कि यह कार्य ईश्वर का है। इसे ईश्वर ही कर रहा है। भगवान ने तो मुझे साधन मात्र बनाया है। हनुमानजी भगवान के साधन बनकर लंका मे सीता की खोज करने गये। अकेले ही अपनी शक्ति से समस्त लंकापुरी को जला दिया। इस पूरे कार्य को करने के उपरांत हनुमान जी और वानर सेना लौटकर श्री राम जी के पास पहुंचे। श्री राम जी ने हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए उनसे पूछा कि तुमने यह कार्य किस तरह से किया-
कहु कपि रावन पालित लंका।
के बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
(रामचरितमानस /सुंदरकांड/32/2-1/2)

श्री राम ने पूछा हे हनुमान! बताओ तो रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बांके किले को तुमने किस तरह जलाया।
भला अपने स्वामी द्वारा की हुई प्रशंसा निराभिमान सेवक हनुमानजी को कैसे अच्छी लगती? इस प्रकार की प्रशंसा हनुमान जी को छोड़कर किसी भी अन्य को अहंकार से भर सकती है। हनुमान जी का उत्तर बिल्कुल अलग था। अत: हनुमानजी ने उत्तर दिया-
सो सब तव प्रताप रघुराई ।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ।।
(रामचरितमानस /सुंदरकांड/32-5)

हनुमानजी नम्र होकर कहते है प्रभु इसमें मेरी कुछ भी बढ़ाई नहीं है। यह सब आपका ही प्रताप है।
हनुमान जी फिर आगे कहते हैं-
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल
तब प्रभावँ बडवानलहि जारि सकइ खलु तूल।। (रामचरितमानस /सुंदरकांड/33)

हे प्रभु! जिस पर आप प्रसन्न हो, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभाव से रुई (जो स्वयं जल्दी जलनेवाली वस्तु है) बडवानल को निश्चय ही जला सकती है। (अर्थात असम्भव भी सम्भव हो सकता है ।)
इस प्रकार इस प्रकार हनुमान जी ने अपनी अणिमा सिद्धि से शारीरिक रूप से अपने को सूक्ष्म किया। इसी प्रकार से अहंकार रहित होकर मानसिक रूप से भी अपने को सीता माता के सामने विनम्र किया। अगली चौपाई है-
“भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचंद्र के काज संवारे॥”
यहां पर भीम शब्द का अर्थ है बहुत बड़ा, भयंकर, भीषण या डराने वाला। रामचंद्र जी के कार्यों को करने के लिए हनुमान जी ने बहुत बड़ा होना और बलशाली होना आवश्यक था। दुश्मनों के सामने भी अपने आप को बलशाली सिद्ध करना आवश्यक होता है। व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से बलशाली होना पड़ेगा। शारीरिक रूप से बलशाली दिखने के लिए आवश्यक है कि आपका शरीर भी ताकतवर और विशाल दिखाई दे। हनुमान जी ने अशोक वाटिका में राक्षसों का संहार करते समय “महिमा सिद्धि” का उपयोग कर अपने आप को बड़ा किया। उसके बाद भी अशोक वाटिका के फल खाने लगे और वृक्षों को तोड़ने लगे। रखवाले राक्षस जो आए, उनकी पिटाई करने लगे। इस मारपीट में बहुत से राक्षस मरने लगे। इस दृश्य का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के सुंदरकांड में बहुत सुंदर ढंग से किया है-
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥

अर्थ- मां सीताजी से अनुमति पाने के उपरांत हनुमान जी ने उनको प्रणाम किया। फिर उन्होंने अशोक वाटिका में प्रवेश किया। यहां पर वे फल खाने लगे और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहां पर वाटिका की रक्षा के लिए बहुत सारे बलवान राक्षस नियुक्त थे। उनको भी वह मारने लगे। इन राक्षसों में से कुछ मर गए और कुछ रावण के पास पहुंचे।
रावण के पास पहुंचकर राक्षसों ने अपनी तकलीफ व्यक्त की-
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥

अर्थ- हे नाथ! एक बड़ा भारी वानर आया है। उसने अशोक वाटिका को उजाड़ दिया है। उसने फल तो सारे खा लिए हैं और वृक्षों को उखाड दिया है। उसने रखवारे राक्षसों को पटक–पटक कर मार गिराया है।

इस प्रकार हनुमान जी ने अपना पौरुष राक्षसों को दिखाया। इसके बाद राक्षसों ने जाकर हनुमान जी के बल के बारे में रावण को बताया। इसके उपरांत रावण ने कई बलशाली राक्षसों को भेजा परंतु हनुमान जी ने सभी को मार दिया। अंत में मेघनाद आया और वह भी हनुमान जी से बहुत चोट खा गया हम तुम्हें उसने हनुमान जी के ऊपर ब्रह्मास्त्र से प्रहार किया। आगे की घटना रामचरितमानस और बाल्मीकि रामायण में अलग-अलग है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र के प्रहार को बर्दाश्त कर लिया तथा ब्रह्मास्त्र से अपने आप को मुक्त कर लिया। परंतु चतुराई पूर्वक हनुमान जी गए नहीं। वे रावण से अपनी बातों को कहना चाहते थे। इसलिए बंधन मुक्त होने के बाद भी वे वहां पर खड़े रहे। वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के 48वें सर्ग 47वें और 51वें श्लोक में इसका वर्णन किया गया है-
स रोचयामास परैश्च बन्धनं प्रसह्य वीरैरभिनिग्रहं च।
कौतूहलान्मां यदि राक्षसेन्द्रो द्रष्टुं व्यवस्येदिति निश्चितार्थः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/48/47)

अर्थ- इस प्रकार हनुमान जी ने अपना बांधा जाना, शत्रुओं की गालियां खाना, उनके वश में होना आदि पसंद किया। क्योंकि वे चाहते थे कि रावण उन्हें कौतूहल वश बुलवावे। इस प्रकार उसके साथ बातचीत हो सके।
अस्त्रेण हनुमान्मुक्तो नात्मानमवबुध्यत।
कृष्यमाणस्तु रक्षोभि स्तौश्च बन्धैर्निपीडितः।।
(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/48/51)

अर्थ- हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र के बंधन से मुक्त होकर भी कुछ नहीं किया। राक्षस लोग उनको खींच रहे थे और पीड़ा पहुंचा रहे थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने ब्रह्मास्त्र से अपने आप को मुक्त कर लिया था, परंतु रामचरितमानस में यह कहा गया है कि उन्होंने जानबूझकर ब्रह्मास्त्र में बंधे रहना पसंद किया।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥

भावार्थ- महादेवजी कहते हैं कि हे पार्वती! सुनो, जिनके नाम का जप करने से ज्ञानी लोग भवबंधन को काट देते हैं। उन प्रभु का दूत (हनुमानजी) भला बंधन में कैसे आ सकता है? परंतु अपने प्रभु के कार्य के लिए हनुमान ने अपने को बंधा दिया।
रामायण और श्री रामचरितमानस के उपरोक्त वर्णन स्पष्ट है की हनुमान जी के पास शक्ति होते हुए भी रामचंद्र जी के कार्य को संपन्न करने के लिए उन्होंने अपने आप को ब्रह्मास्त्र के अधीन किया और राक्षसों द्वारा दिए गए दुख दर्द को सहन किया और मानसिक रूप से बलवान होने का परिचय दिया।

अंत में उन्होंने मां सीता को उनके बारे में रामचंद्र जी की चिंता को बताकर उनके दुख को कम किया।

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

भावार्थ- हनुमानजी ने सीताजी से कहा कि हे माता! रामचन्द्रजी ने जो सन्देश भेजा है वह सुनो। रामचन्द्रजी ने कहा है कि तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी बातें विपरीत हो गयी हैं। नवीन कोपलें तो मानो अग्निरूप हो गए हैं, रात्रि मानो कालरात्रि बन गयी है। चन्द्रमा सूरजके समान दिख पड़ता है।

इस प्रकार उन्होंने मां सीता जी के संताप को कम करके रामचंद्र जी के एक बड़े कार्य को पूर्ण किया। हनुमान जी ने रामचंद्र जी के कार्यों को करने के लिए अपने आप को हर तरह से सक्षम किया। अपनी पूरी सिद्धियों का उपयोग कर रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया।

जय हनुमान

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