प्रार्थना राय
देवरिया, उत्तर प्रदेश
स्वयं न उलझो तुम कभी जीवन के आगत और विगत में,
भ्रमित न हो मिथ्याभिमान व अविवेक के क्षणिक मत में।
अगर मिला है मानुष जीवन, है स्वरूप जिसका अनुपम,
कर दूर दंभ पाखंड को, नव सूरज बन उदय हो जगत में।।
जोड़कर स्वयं से स्वयं को, गढ़ लो अपने दिव्य अंग-प्रत्यंग
अभिलाषाओं के गुंजित स्वर से, तन-मन में भर लो उमंग।
अल्पकालीन जीवन डगर पर, कहीं छांव तो कही धूप है,
उत्साह लिए मन में अपरिमित, गाओ नया अब राग रंग।।
पथ चाहे दुर्गम कितना हो, बिछाना तुम चाहत के फूल,
पग ठोकर से सबको करना दूर, राह में मिलेंगे खार-शूल।
फागुन के गीतों संग लिखना, तपती संघर्षो की दोपहरी,
साया बनकर साथ रहेगें, जीवन के ये अनुबंधित मूल।।
शेष रहा क्या जीवन में, और क्या है खोया पाया,
पश्चाताप की देहरी पर, वो मनुज क्या जिसने शीश नवाया।
कर ऐसा अनुष्ठान जगत में, स्मृतियों का लहराये परचम,
मार्ग सुगम कर जीवन का, बाकी सब धरती पर है माया।