वंदना सहाय
अम्माँ स्वदेश आए अपने प्रवासी बेटे के सामने लगी खाने की मेज पर रखे तरह-तरह के पकवानों के ढेर से एक-एक कर पकवान बेटे की थाली में परोसती जा रही थी।
“बेटा, यह लो गाजर का हलवा, जो तुम्हें बहुत पसंद है और यह मालपुए, मेवे और मावे से भरपूर। यह गाढ़ी मलाईदार खीर और साथ में हींग की मोयनदार कचौरी।”
पर, जैसे ही उन्हें दरवाज़े पर बैठा काम वाली बाई का पांच साल का बेटा अंकित याद आया, उनकी आवाज़ थोड़ी देर के लिए ठिठकी और आरोह, अवरोह में बदल गया-“ओह! मुझे याद ही नहीं रहा कि अंकितवा दरवाजे पर ही बैठा है। अगर गलती से भी इन पकवानों की सुगंध उसे लग गई तो वह किसी न किसी बहाने घर के भीतर दौड़ा चला आएगा। पता नहीं, कैसे सूंघ लेता है, वह पकवानों की सुगंध। दिन-भर खाने के लिए नाक में दम किये रहता है। अरे, तुम लोग भी तो बच्चे थे, कहाँ कभी खाने के लिए ऐसे दम किया करते थे। उल्टा, मुझे ही तुम लोगों के पीछे दौड़ना पड़ता था खिलाने के लिए।
बेटा, जो अनुवांशिकता पर शोध कर रहा था, अपने हलक में अटक-से गए निवाले को निगलने की कोशिश करता हुआ बोला-“अम्माँ, शिशु जब अपनी माँ के गर्भ में पल रहा होता है और गर्भकाल के नौ महीनों में शिशु की माँ ज़्यादातर समय भूखी रहती है तो शिशु को भी गर्भ में भूखा ही रहना पड़ता है। काम करने वाली गरीब औरतों के केस में तो मुझे लगता है कि यही भूखी माँ की भूख के ‘जीन्स’ उसके शिशु में भी ‘ट्रांसमिट’ हो जाते हैं, जो उसके पैदा होने के बाद उसमें खाने की ललक को सदा बनाए रखते हैं। मैं वैज्ञानिक तौर पर गलत भी हो सकता हूँ, पर काश! मैं अपनी थीसिस में इसे साबित कर पाता”।