शिक्षा और संस्कृति से समृद्ध परिवार में जन्मी सुश्री मेधाविनी वरखेड़ी भरतनाट्यम की अत्यन्त प्रतिभावान युवा नृत्यांगना हैं और अपने नाम के ही अनुरूप मेधावी भी। उन्होंने नृत्य की शिक्षा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्राप्त भारतनाट्यम के सुविख्यात गुरुओं श्रीमती निरुपमा राजेंद्र और टी.एस. राजेंद्र से ली है। सुश्री मेधाविनी ने ‘देसी मार्गी अडवू’ विषय पर पिछले दिनों आयरलैंड की इण्डियन एम्बेसी में अपना सोदाहरण व्याख्यान प्रस्तुत किया। वह विदेश यात्रा पर फिर जा रही हैं इसी बीच मेधाविनी से हिन्दी कवि और नाट्यशास्त्र की विख्यात विदुषी डॉ. संगीता गुंदेचा ने बातचीत की। उस वार्ता के अंश –
संगीता गुंदेचा- कर्नाटक सांस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध प्रदेश है। मैं जानना यह चाहती हूँ कि आपका बचपन कहाँ और किस तरह के परिवेश में बीता। अपने माता पिता की रुचियों के बारे में भी बताएँ?
मेधाविनी वरखेड़ी- मेरे पिता और मेरे परिवार में बहुत सारे लोग शिक्षा के क्षेत्र से हैं। मेरे पिता दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक रहे हैं। उनको और मेरी माँ को शास्त्रीय संगीत और कलाओं से बहुत प्रेम रहा है। उन्हें शुरु से ही कलात्मक फ़िल्में देखने, शास्त्रीय संगीत सुनने और नृत्य देखने में रुचि थी। जब मैं छोटी थी क़रीब चार-पाँच साल की तब से शास्त्रीय संगीत में मेरा प्रशिक्षण शुरू हुआ। मेरा बचपन आन्ध्रप्रदेश में बीता। कुछ समय तक मैंने वहाँ हिंदुस्तानी गायन का अभ्यास किया। एक दिन मैंने मंच पर कुछ लड़कियों को वेशभूषा और साज-सज्जा के साथ नृत्य करते देखा। उन्हें देखकर मैं बहुत आकर्षित हुई। मेरे अभिभावक कला को लेकर बहुत उत्साहित थे ही, मैंने अपनी माँ की वजह से शास्त्रीय संगीत और लोकनृत्य सीखना शुरू किया था।
मुझे याद है कि बचपन में जब कोई नृत्य प्रस्तुति होती थी, माँ बहुत ही उत्सुकता से वहां जाने के लिए मुझे तैयार करती थीं। जब मैं क़रीब दस साल की हुई, मेरा भरतनाट्यम नृत्य में प्रशिक्षण शुरू हुआ। तबसे आज तक इस नृत्य के लिए मुझमें प्रेम और समर्पण भावना बढ़ती ही जा रही है। कभी कभी मैं सोचती हूँ कि शास्त्रीय नृत्य के प्रति मेरी रुचि कैसे हुई होगी? क्योंकि मेरे परिवार में तो कोई पेशेवर नर्तक या नर्तकी है नहीं, पर मैंने अपनी दादी से सुना था कि मेरे पिता बचपन से ही अभिनय में निष्णात हैं। उन्होंने बहुत सारे नुक्कड़ नाटकों में मुख्य भूमिकाएं निभायी हैं। उन्हें बचपन से ही अभिनेता बनने का बहुत शौक था। मुझे लगता है शायद उनसे ही मुझमें अभिनय और कला के प्रति प्रेम आया। आज मैं जो भी कर पाती हूँ, वो मेरे गुरुओं और माता-पिता का ही आशीर्वाद है।
संगीता गुंदेचा- आप भरतनाट्यम् प्रशिक्षण के लिए अपने गुरुओं से कैसे मिलीं?
मेधाविनी वरखेड़ी- मेरी पहली गुरु, श्रीमती सुमा राजेश, स्पूर्ती स्कूल ऑफ़ डांस की निदेशक थीं। जब मैं हैदराबाद से बेंगलुरु आ गयी, मेरे घर के पास ही उनका नृत्य विद्यालय था, जहाँ उन्होंने मुझे बहुत स्नेह से नृत्य सिखाया। मैं यह मानती हूँ कि जब हम कुछ नया सीखना शुरू करते हैं, सिखाने वाले गुरू की भूमिका बहुत महत्व की होती है, क्योंकि उसी से हमारी रुचि का विकास होता है। जब मैं लगभग सोलह वर्ष की हुई, अपने समूह के साथ गुरु निरुपमा राजेन्द्र और श्री टी.एस. राजेन्द्र का नृत्य देखकर मुझे बहुत प्रेरणा मिली और मैंने उनके अभिनव संस्थान में कत्थक नृत्य का प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया। उनकी नृत्य सिखाने की शैली और तकनीक दोनों ने मुझे बहुत प्रभावित किया और मैंने भरतनाट्यम् का प्रशिक्षण भी श्रीमती निरुपमा राजेन्द्र के मार्गदर्शन में ही आरम्भ कर दिया। उनके मार्गदर्शन में मुझे नाट्यशास्त्र के बहुत सारे अवयवों का ज्ञान हुआ। उनकी प्रशिक्षण शैली के कारण मुझमें भरतनाट्यम् के प्रति स्वाभाविक रुचि का विकास हुआ।
संगीता गुन्देचा- अपनी गुरु परम्परा के बारे में विस्तार से बताएँ?
मेधाविनी वरखेड़ी- मेरी गुरु श्रीमती निरुपमा राजेन्द्र ने बहुत प्रसिद्ध गुरुओं से नृत्य का प्रशिक्षण लिया है। जैसे गुरु नर्मदा, जिनका भरतनाट्यम् का सुविख्यात पंडनलूर नृत्य विद्यालय था। गुरु कलानिधि नारायण से मेरी गुरु ने अभिनय का प्रशिक्षण लिया। गुरु डॉ. सुंदर, जो परम गुरु डॉ. पद्मा सुब्रह्मणम् की प्रमुख शिष्याओं में थीं, उनसे मेरी गुरु ने नाट्यशास्त्र में वर्णित ‘करणों’ का प्रशिक्षण लिया और डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम् की ‘भरतनृत्यम्’ की परम्परा को जारी रखा। वे अलग-अलग गुरुओं से सीखने के बाद अपने अनुभवों और प्राप्त शिक्षाओं के आधार पर अपने ही अंदाज़ में अपने शिष्यों को भरतनृत्यम् सिखाती हैं।
परम गुरु डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम् की भरतनृत्यम् की शैली में नाट्यशास्त्र के करण और अंगहार दोनों का मेल है। मेरी गुरु ने भरतनाट्यम् के अडवू और नाट्यशास्त्र में वर्णित हस्तकों और चारियों पर शोध करके 108 नये ‘देसी मार्गी अडवू’ का सर्जन किया है। मैं अपने निजी अनुभव से यह कह सकती हूँ कि नाट्यशास्त्र में वर्णित करणों का अभ्यास करने से एक कलाकार की अपनी कला के बारे में गहरी समझ उत्पन्न होती है। उसकी अपनी देशी शैली (चाहे वह भरतनाट्यम हो, ओडिसी हो या कथक) को शक्ति मिलती है। हम विभिन्न करणों के आधार पर कई तरह से अभिव्यक्ति कर सकने की सामर्थ्य पाते हैं। इस तरह सर्जनात्मक अभिव्यक्ति की कई सम्भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। भरतनृत्यम् शैली में करणों की वक्रता से दर्शकों तक गहन सौन्दर्यात्मक मूल्यों का सम्प्रेषण किया जा सकता है।
मैं अपने को सौभाग्यशाली मानती हूँ कि मेरा सम्बन्ध ऐसी अद्भुत गुरु परम्परा से है।
संगीता गुंदेचा- हाल ही आपने आयरलैंड में ‘अडवू’ पर सोदाहरण व्याख्यान दिया। वहां के अपने अनुभव के बारे में कुछ बताना चाहेंगी?
मेधाविनी वरखेड़ी- आयरलैंड की इण्डियन एम्बेसी में व्याख्यान देना मेरे लिए बहुत विशिष्ट अनुभव था। नृत्य पर यह मेरा पहला सोदाहरण व्याख्यान था और वह भी मेरे बहुत ही पसंदीदा विषय पर। जिस विषय पर मैंने व्याख्यान दिया, उस पर मेरी गुरु ने शोध किया है, जिससे मैं शुरू से जुड़ी हुई हूँ। जब वह भरतनाट्यम् के ‘अडवू’ को डिज़ाइन कर रही थीं, मैंने उस प्रक्रिया को और उसके डॉक्यूमेंटेशन को बहुत करीब से देखा। उनके शोध कार्य ‘देशी मार्गी अडवू’ का जब पहला प्रदर्शन बैंगलुरु में हुआ था, मैं उस नृत्य परिकल्पना को प्रस्तुत करने वाले समूह में शामिल थी इसलिए आयरलैंड में इस विषय पर बात करने के लिए मैं बहुत उत्साहित थी। अपने गुरुओं के शोध कार्य को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करने का अवसर मिलना, मेरे लिए सौभाग्य की बात है। अपने गुरुओं के मार्गदर्शन में इस व्याख्यान की तैयारी करने से मुझे बहुत सीखने को मिला। एक नर्तक या नर्तकी के लिए नृत्य के साथ साथ मंच से अपने विचारों को प्रस्तुत कर दर्शकों से संवाद स्थापित करना बड़ी चुनौती होती है। इस दृष्टि से भी यह मेरे लिए विशेष था।
आयरलैंड के दर्शकों और श्रोताओं ने इस विषय को बहुत पसन्द किया। आयरलैंड के भारतीय दूतावास के राजनयिक, जो स्वयं नाट्यशास्त्र के अच्छे विद्वान् हैं, उनसे इस विषय पर संवाद करना मेरे लिए अविस्मरणीय अनुभव रहा। मैं अपने गुरुओं की बहुत कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने बहुत उदारता के साथ अपना ज्ञान मेरे साथ बांटा। उन्होंने मुझे न केवल नृत्य सिखाया बल्कि आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित भी किया।