उपासना पद्दति और धर्म- अरविन्द कुमार श्रीवास्तव

मनुष्य केवल विज्ञान के आधार पर जीवन जीने वाला प्राणी नहीं है। इस कारण वह मानव जीवन के विविध आयामों के मध्य मनुष्यता के सामने आयी विभिन्न चुनौतियों या समस्याओं का समाधान खोजने के लिये विविध आयामों को अभिलक्छित करता है और समाधान खोजता है। धर्म हो या विज्ञान दोनों का उद्देश्य श्रेष्ठ मनुष्य का निर्माण करना ही रहा है, लोक कल्याण कारी और परोपकारी जीवन निर्माण के मार्ग में धर्म और विज्ञान का कोई भी विरोध किसी भी कालखंड में कभी नहीं रहा है क्योँ कि दुनिया के सभी धर्मों के मूल में मुख्यता मानवीय गुणों का विकास ही रहा है, और यह मानवीय गुण है अहिंसा, सदाचार, सहानुभूति, संवेदनशीलता, परोपकार, नैतिकता, संयम, ईमानदारी और मर्यादा। त्याग, समर्पण, सेवा भी मानवता के मूल आधार रहे है। अतः हम कह सकते हैं कि मानवता सभी से बढ़ कर है, सभ्यता का विकास यह सुनिश्चित करता है कि मानवता क़े मार्ग पर हमने व्यक्तिगत, सामूहिक, एक समाज या एक देश कि रूप में कितने आगे का रास्ता तय किया है।
संसार के बहुत सारे देश और भारत भी आज एक अपरचित और अनजान वायरस से मानव जाति को बचाने कि उद्देश्य से सम्मलित रूप से किसी रास्ते की तलाश विज्ञान और चिकित्सीय ज्ञान के माध्यम से करने का प्रयास कर रहे है, तो धर्म के सभी स्थलों को पूरी तरह से बंद कर दिया गया है, यह पहली बार है कि किसी आपदा के कालखंड में विज्ञान और धर्म के बीच एक मौन असहमति को देखा जा रहा है। मानव जाति को बचाने के रास्तों के तलाश के समय मत – मजहब – पंथ को साधक बनना चाहिए था बाधक नही। उपासना की किसी भी प्रणाली या पद्दति को मानवता की हानि की कीमत पर मान्यता प्रदान नहीं की जा सकती है, किन्तु भारत में आज कुछ लोग ऐसा करने का कुत्सित प्रयास कर रहे है, और यही नही वे अपने प्रयासों के पछ में सरकार और मानवता की सहमत भी चाहतें हैं, यह धर्म नहीं हो सकता। धर्म का मूल उद्देश्य तो मानवता की रछा करना ही है। वास्तव में यह विज्ञान के विरुद्ध धार्मिक उन्माद और जिहाद का कालखंड है। ध्यान रहे कि जब भी वैज्ञानिक समाज के निर्माण के रास्ते में धर्म या पंथ की जीवन पद्दति या प्रणाली बाधा बनकर खड़ी होगी तो यह हमें पतन की ओर ही ले जाएगी।
धर्म मनुष्यता को संकटों से मुक्त करने का रास्ता दिखता है। उपासना पदातियों में भेद या ईश्वर को निराकार अथवा साकार मानने का भेद रहते हुये भी मनुष्यता के सभी धर्म मानव के कल्याण और परोपकार की दृष्टि से एक ही रहते हैं। कोई भी धार्मिक मनुष्य ऐसा करने की अनुमति कभी नहीं दे सकता जिससे किसी दूसरे मनुष्य कि प्राण संकट में हों या कोई दूसरा उसके कार्य, व्यापार या व्योहार से दुखी अथवा परेशान हो धर्म के किसी भी प्रारूप, किसी भी पंथ या संप्रदाय के द्वारा यदि ऐसा होते हुये दिखाई देता है तो वह केवल धार्मिक आडम्बर ही है। धर्म की भूमिका वस्तुतः विज्ञान और तकनीकी पर वह सतयुगी अंकुश लगाना है जो विज्ञान को राक्षसी वृत्ति और संहार की ओर आगे ले जा सकता है। वास्तविक धर्म वही है जो विज्ञान और तकनीकी को मानवीय तथा लोक कल्याणकारी बनता है या बनाने की दिशा में अग्रसर करता है। मनुष्य जाति को स्व तथा अहंकार से ऊपर उठता है और उसे सब क़े हितों में सोचने वाले क़े रूप में रूपांतरित करता है, यदि कोई मत, कोई जमात, कोई समूह इस रास्ते से अलग जाता है तो वह अधर्म क़े मार्ग का निर्माण करता है।
जो विज्ञान सम्मत नहीं है वह धर्म भी नहीं हो सकता, और जो धर्म मनुष्यता क़े लिये कल्याणकारी नहीं है वह कितना भी विज्ञान और तकनीकी सम्मत क्यों न हो धर्म कहलाने की योग्गिता नहीं रखता। मनुष्य ईश्वर की श्रेष्ठतम और अनुपम कृति है इस कारण मनुष्य को संकट में डालने या दुःख देने का कोई भी यत्न वस्तुतः ईश्वर क़े विरुद्ध ही है। उपासना या बंदगी का कोई भी रास्ता या कृत ईश्वर की इस श्रेष्ठतम रचना क़े विरुद्ध यदि जाता है तो वह पद्दति धार्मिक नहीं हो सकती है, हाँ हम इसे धर्मोन्माद अवश्य कह सकते है। आज का मनुष्य प्रत्येक क्षण अपने वर्चस्वा को स्थापित करने क़े भ्रम में जी रहा है यह भयावह रूप से सिद्ध हो चूका है कि हमारी तकनीकी और संघर्ष मानवीय सभ्यता की सीमा रेखा को पर कर चुकी है, मानव का सबसे बड़ा गुण मानवता ही है और यही हमें मानव होने के सौभाग्य से विभूषित भी कर सकता है, मानवता का एक ही संकल्प है और वह है भलाई और कल्याण। कोई भी उपासना पद्दति धर्म नही है, उपासना पद्दति तो व्यक्तिगत हो सकती है किन्तु धर्म समस्त मानव जाति के कल्याण का ही मार्ग खोजता है और विज्ञान का भी यही कार्य है। सच्चे अर्थों में यदि देखा जाय तो आज जिस महामारी से लड़ने की लिये दुनियां की सभी धार्मिक स्थलों के पट बंद किये गये हैं वे केवल विभिन्न प्रकार क़े उपासना पद्दतियों या उनके प्रतीक चिन्हों क़े ही पट है, मानव जाति क़े द्वारा माने और स्वीकार किये गये सभी धर्मों क़े पट तो हमारे दिलों में हमेशा खुलें हैं और खुलें ही रहेंगे, इस मूल तथ्य और सत्य को समझने की कला या विज्ञान को ही हम मानवता या मानवीय धर्म कह सकते हैं यह प्रत्येक उपासना पद्दति से भिन्न और श्रेष्ठ है, यही वास्तविक धर्म भी है।

-अरविन्द कुमार श्रीवास्तव
पिता का नाम- रमेश चन्द्र श्रीवास्तव जन्म तिथि- 1 जनवरी 1961
एक उपन्यास पार्थ- महासमर के योद्धा, दिसंबर 2019 में प्रकाशित