आत्महत्या: आखिर क्यों- अनिल कुमार मिश्र

‘आत्महत्या’ एक ऐसा शब्द है जो निश्चित रूप से हमें विचलित कर अनेक अनुत्तरित प्रश्न हमारे मन के भीतर डाल देता है और हम उसे प्रतिपल सोचते रहते हैं। हम मन मे उन परिस्थितियों को लाने का प्रयास करते हैं जिसने किसी जीवित व्यक्ति को चिंतन के उस दहलीज़ तक पहुँचाया जहाँ से वापस जीवन मे लौटने का कोई रास्ता ही नहीं था। समाज द्वारा करीबी रिश्तेदारों द्वारा भावनात्मक एवं मानसिक हत्या कर दिए जाने के बाद ही कोई व्यक्ति अपने शरीर को खत्म करने का प्रयास करता है। अंतर्मन में लगे ठेस और चोट की पीड़ा जब बहुत ही ज्यादा दर्द देते हुए असहनीय हो जाती है तभी मनुष्य आत्महत्या की ओर उन्मुख होता है।
मेरे विचार से ‘समाज के द्वारा, निकटतम रिश्तेदारों के द्वारा आत्मा की हत्या कर दिए जाने के बाद बचे हुए लाचार शरीर को खुद समाप्त कर दिया जाना ही आत्महत्या है।’
हमने शब्द भले ही आत्महत्या दे दिया हो परंतु यह भी एक हत्या ही है। सामान्य हत्या में हत्यारा सामने होता है परंतु आत्महत्या में हत्यारे को ढूंढने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है, यह छिपा होता है। ऐसे हत्यारे मानसिक एवं भावनात्मक हत्या करने में दक्ष होते हैं जो आत्महत्या की परिस्थिति पैदा करते हैं। ऐसे लोग हमारे घर के अंदर भी हो सकते हैं। अपनी कार्यशैली में ऐसे लोग इतने निपुण होते हैं कि इनकी बातें हमारी आत्मा तक को छलनी कर जाती हैं और जब आत्मा टूटकर बिखरती है तो फिर शरीर बेकार सा लगने लगता है और आत्महत्या जैसी मानसिक स्थिति पैदा होती है।
सामान्य तौर पर जब अनुकूल परिस्थितियाँ प्रतिकूलता में परिवर्त्तित होती हैं या किसी बहुत ज्यादा निकटतम व्यक्ति के द्वारा (परिवार के सदस्य भी) अनपेक्षित रूप से जब दिल टूटता है तो ऐसी स्थिति पैदा होती है। समाज और रिश्तेदार विकटतम स्थिति में जब अकेलापन को जन्म देता है तभी नैराश्य में डूबकर कोई व्यक्ति आत्महत्या के लिए उद्यत होता है।
आत्महत्या सुनियोजित नही होती। यह क्षणिक आवेश में परिवर्त्तित मनोदशा का परिणाम है।कोई भी व्यक्ति दस दिनों से चार पाँच दिनों से अपनी हत्या की योजना नही बना सकता क्योंकि ऐसा करने के बाद भी इस अवधि में बहुत सारे ऐसे दौर आएँगे जो उसे जीने के लिए प्रेरित कर जाएँगे और एक आत्महत्या टल जाएगी। ऐसी विवशता, ऐसी परिस्थिति क्षण भर में पैदा होती है, अतः आत्महत्या कर चुके व्यक्ति के द्वारा उस क्षण किस कष्ट को भोगा गया होगा, यह अनुमान लगा पाना एक दुष्कर कार्य है। हाँ उसके द्वारा लिखे गए नोट आदि के द्वारा हम उसकी मानसिक स्थिति को समझने का प्रयास करते हैं और एक निष्कर्ष तक पहुंच पाते हैं कि प्रताड़ना का स्तर कैसा था। जब मानस पटल पर नैराश्य का साम्राज्य हो जाता है, आशा की कोई किरण नही दिखती, आत्मा छलनी कर दी जाती है तभी क्षण भर का मानसिक परिवर्तन आत्महत्या के लिए बाध्य करता है।
आत्महत्या के कई प्रयास विफल भी हो जाते हैं और ऐसे में यह आवश्यक नही कि दोबारा फिर वह व्यक्ति आत्महत्या कर ही ले। हो सकता है उसने जीवन जीने की कला सीख ली हो और अब वह मरना नही चाहता, वह अपने बच्चों के लिए, अपनी पत्नी के लिए जीना चाहता हो।
ऐसे व्यक्ति को प्यार की, अपनेपन की जरूरत होती है जो उसके मानसिक तरंगों को समझकर उसे सहारा दे। जब भी यह महसूस हो कि व्यक्ति निराश है, ज्यादा चिंतित है,अवसाद की स्थिति चरम पर है,खुद अकेला रहना चाहे, अकेलेपन की जिद्द करे तो उसे कभी भी अकेला ना छोड़ें। ऐसी स्थिति में हमे उसकी मानसिक स्थिति को समझने का पूरा प्रयास करना चाहिए और तदनुरूप ही उसका मनोबल बढ़ाना चाहिए। इस परिस्थिति में आपके एक एक शब्द चुने हुए होने चाहिए, ऐसे कोई भी शब्द ना हों जो उस व्यक्ति को तकलीफ दे। समाज खुद को पहचाने, रिश्तेदार भी अपनी जिम्मेदारी से विमुख न हों। व्यष्टि में ही समष्टि है।
एक से एक जुड़ेंगे तो समाज बनेगा। जीवन में हर रिश्ते की अहम भूमिका होती है, इसमें निरर्थक अहंकार का कोई स्थान नहीं। अपनी सोंच बदलें, ‘जियें और जीने दें’ क्योंकि कोई भी आत्महत्या वास्तव में आत्महत्या नहीं वरन समाज के द्वारा रिश्तेदारों के द्वारा विकृत मानसिक एवं भावनात्मक परिधि का निर्माण कर उस परिधि के भीतर खुद को बचाते हुए की गयी हत्या है।

-अनिल कुमार मिश्र
हज़ारीबाग़, झारखंड