पुस्तक समीक्षा: ‘तितलियों के रंग’ में जीवन दर्शन

पुस्तक: तितलियों के रंग
ग़ज़लकार: शेषधर तिवारी
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
मूल्य: 250

ग़ज़ल अपनी संक्षिप्तता और हर शेर में वैचारिक भिन्नता के कारण एक लोकप्रिय विधा बन गयी है। यह सच है कि ग़ज़ल एक आयातित विधा है मगर यह भी सच है कि केवल विधा ही आयातित है, उसमें भाषा, मुहावरे और कहन हमारे अपने हैं। अगर कहा जाए तो ग़ज़ल की कसौटी प्रभावोत्पादकता है। वह शेर जो शास्त्रीय विधान के साथ मन की अभिव्यक्ति को सहजता से प्रेषित करता है, लोगों को अधिक पसंद आता है ।

ग़ज़ल का रचाव लोकप्रियता और इसका स्वभाव आपको पहली ही नज़र में अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं, मगर ग़ज़ल के साथ बने रहने एवं उसके रचाव को समझने के लिए सतत काव्य साधना करनी पड़ती है। आदरणीय शेषधर तिवारी वरिष्ठ ग़ज़ल साधक हैं। इनका पहला ग़ज़ल संग्रह ‘तितलियों के रंग’ भारतीय ज्ञानपीठ से आया है। इसमें लगभग 100 ग़ज़लें हैं।

ग़ज़ल संग्रह ‘तितलियों के रंग’ के नाम से ही कोमल भावनाओं की अनुभूति होती है। संग्रह की ग़ज़लों में फूलों की ख़ुशबू, भंवरों का गुंजन और बाग़ के परिवेश की तरह ही मधुरता का एहसास होता है। जिस तरह माली अपने फूलों को सहेजते हुए उनकी नाज़ुकी को कम नहीं होने देता, ठीक उसी प्रकार शेषधर तिवारी जी ने ग़ज़लों की नाज़ुकी को बनाए रखा है।

मैं तेरे लम्स की शिद्दत से कहीं जी न उठूँ
मेरी तस्वीर को सीने से लगाने वाले

किसी भी रचनाकार का स्वभाव, विचार एवं सिद्धांत उसके काव्य में परिलक्षित होते हैं। अप्रत्यक्ष रूप से ही सही मगर रचनाकार अपनी रचनाओं में उपस्थित होता है। उसके जीवन के अनेक पहलू उसके रचना संसार का अंग होते हैं। शेषधर तिवारी सर के जीवन में जहाँ आध्यात्मिकता व जीवन दर्शन विद्यमान है वहीं उनकी ग़ज़लों में भी उसकी झलक मिल ही जाती है। जैसे-

सुनने लगता है जब जिस्म सदा-ए-रूह
हम भवसागर पार उतरने लगते हैं

मुझसे जान छुड़ाने की कोशिश में है
रूह मेरी घर जाने की कोशिश में है

जीवन की सच्चाई को उजागर करना रचनाकार का कर्म होता है। वह अपने ज्ञान और अनुभवों को शेरों में ढालता है।

घर जब धीरे-धीरे मरने लगते हैं
दीवारों पर अक्स उभरने लगते हैं

अंधेरों से उजाले की तरफ़ जाने में भले ही मुश्किलों का सामना करना पड़े मगर जो ख़ुशी उजाले को देखकर होती है उसके आगे मुश्किलें कुछ भी नहीं-

भले ही हाथ जला तेरी लौ बढ़ाते हुए
मगर चराग़ तू जंचता है जगमगाते हुए

ग़ज़ल में यदि प्रतीकों की बात न हो तो बात सीधी सपाट और अधूरी सी लगती है। कुछ अशआर अपने अलहदा प्रतीकों के कारण विशिष्ट बन पड़े हैं। सांकेतिकता ओढ़े हुए ये तग़ज़्ज़ुल से भरपूर हैं। क्लासिकल रचाव के साथ आंचलिक शब्दों का समावेश इन्हें जनमानस के स्मृति पटल पर दृढ़ता से अंकित करता है।

तुम्हें तमाज़त में देखना सह नहीं सका मैं
सो छाँव बनकर तुम्हारी जानिब सरक रहा हूँ

हवा फिरती है हर सू पागलों सी
कि जैसे उसका बेटा लापता है

मुझे विश्वास है कि आदणीय शेषधर तिवारी का यह ग़ज़ल संग्रह सभी का भरपूर स्नेह पायेगा। उन्होंने मुझे अपना यह संग्रह सस्नेह भेंट किया, इसके लिए मैं उन्हें हार्दिक धन्यवाद देता हूँ और प्रकाशन पर हार्दिक बधाई देता हूँ।

समीक्षा
सुभाष पाठक ‘ज़िया’