पुस्तक समीक्षा: यहां प्रेम और विज्ञान जुड़वा भाई हैं

समीक्षा– काव्य संग्रह ‘है न ’
समीक्षक- चित्रा पंवार
लेखक- मुकेश कुमार सिन्हा
मूल्य– 199
पृष्ठ संख्या–160
प्रकाशक– हिंदी युग्म

कहते हैं कि दिल और दिमाग पृथ्वी के दो ध्रुवों की तरह एक दूसरे से बहुत दूर, स्वभाव में बिल्कुल विपरीत होते हैं। दिमाग वास्तविकता के धरातल पर तर्क और परिस्थितिजन्य निर्णय लेकर लाभ में रहता है जबकि दिल कोमल है भावातिरेक में घाटे का सौदा कर बैठता है।

मुकेश सिन्हा जी के काव्य संग्रह ‘है न’ को पढ़ने के बाद निश्चित ही आपकी यह धारणा बदल जाएगी।
इस संग्रह में विज्ञान है, गणित है, भूगोल है और इन सभी तर्कशील विषयों को एक छोर पर थामे प्रेम मजबूती से खड़ा है। इनके विज्ञान का दिल धड़कता ही नहीं धधकता भी है।

संग्रह की कई कविताओं में हृदय के कोष्ठकों अलिंद और निलय का वर्णन हुआ है यूं समझ लीजिए कि इस संग्रह का ह्रदय (अर्थात केन्द्र में) प्रेम है शेष विषय हृदय तक आती, जाती धमनी और शिरा।
संग्रह की कविताएं बार–बार भाव से विज्ञान में घुसती हैं और पाइथागोरस की प्रमेय सी सत्य सिद्ध होकर लौटती हैं । विज्ञान के सिद्धांतों को नीतिगत मानते हुए प्रेम में पड़ा विज्ञान का छात्र कवि कह उठता है

‘ जब प्रकाश अपने पथ से विचलित हो सकता है
तो मैं क्यों नहीं?’

छात्र जीवन के खाली जेब, भरे दिल वाले प्रेम को चित्रित करती कविता ‘प्रेम भी तो युद्ध ही है न ’ आत्मा को निष्कलुष, निर्दोष, शीतल प्रेम से भिगो देती है–

‘चाय के कप व आधे गुलाब जामुन के साझापन की
अजीब सी यात्राएं बताती हैं प्रेम,
अर्थ नीति का भी रखती हैं ज्ञान
कप पर उभर आए लिपस्टिक का स्वाद
होता है अनुबंध का वो हस्ताक्षर
जिसमें जी लेता है हारा हुआ बंदी
अनगिनत चुंबन को’

प्रेम भी तो युद्ध ही है न कविता का नायक प्रेमी प्रेम में जीतना या आधिपत्य स्थापित करना नहीं चाहता वह तो बस प्रेम का आकांक्षी है

‘आज फिर हारूंगा मैं,आज फिर जीतो तुम’ तथा ‘ जिंदगी एक हार जरूर मांगती है’..

मुकेश सिन्हा जी की कविताओं को पढ़ते समय पाठक अनवरत अपने भीतर, बाहर की दुनिया को टटोलता चलता है, उन स्मृतियों में झांकता है, हैरान होता है, कविता की हर बात उसे अपनी सी लगती है, कविताओं में उसकी वास्तविक या काल्पनिक दुनिया का मंचन है, पढ़ते पढ़ते अनायास ही कह उठता है ‘अरे, जिंदगीनामा हैं ये कविताएं!!’

क्या ‘अजीब लड़की ’पढ़ते हुए किसी को अपने लड़कपन के दिनों की किशोरवय प्रेमिका का स्मरण नहीं हो आएगा–

“जब मैं कहता हूं कि कितनी अजीब लड़की हो तुम
तब तुम्हारी अजीबियत होती है ऐसे
मेरी आंखों में डालकर आंखें खिलखिलाती हो
और उसी समय टपक पड़ते हैं आंसू”

संग्रह के कुछ बिम्ब, शब्दचित्र कमाल के बन पड़े हैं-

‘लिहाफ को लिफाफे की तरह तह कर
लिपटे हुए थे ऐसे जैसे हो प्रेम पत्र’
मिलन के पलों का शरारती द्वंध पढ़ने वाले की आंखों में गुलाबी रंगत बिखेर देता है–
‘तुम
बस छिटकते हुए कह दो कि
छोड़ भी दो न
पर छूटना भी न चाहो
आँखें कहें –कभी न छोड़ना’

और वियोग के अर्वाचीन रंग भी देखिए–

‘प्यार और सोमवार नहीं होते एक साथ’
प्रेम में मनुहार है, कल्पना, आकांक्षा है, निमंत्रण है, देह है, आत्मा है, अधूरेपन की कसक है,,साइकिल है, प्रेशर कुकर, एरोप्लेन,यहां तक की फेसबुक का इनबॉक्स भी प्रेम है, ।
यह संग्रह प्रेम के भांति भांति के पुष्पों का गुलदस्ता है।
दोपहरी तथा पतंगे की जलन है, आंसुओं में डूबकर मरने की चाह है, अपने सपनों की फिल्म में खुद को केंद्र में रखने की चाहत में नायक कहता भी है–
‘हां याद रखना हीरो रहूंगा मैं
और हीरोइन सिर्फ तुम’
प्रेमिल पलों को रोकने की नाकाम कोशिश की उदासी है–
‘पर कहां रुकते हैं
बहाव, नदी और तुम!’

मौसम में रूमानियत और परिवेश में ठिठोली है–

‘टूटती नदी के साथ खिलखिलाते सपने भी तो
तकिए के अगल-बगल से चिढ़ाते हुए कह उठे
कवि तुम प्रेम में तो नहीं हो उसके’

प्रेम में गांव, शहर, राजधानी है, सांकेतिक भाषा और उपमाओं का सुंदर, सटीक उपयोग पाठक के मन को आनंदित कर देता है कवि की कल्पना से ही संभव है कि उसे किसी के डिंपल वाले गालों पर पड़ी लटें राह बदलती गोमती लगने लगे और मुस्कान इमामबाड़े की भूलभुलैया..!

‘प्रेम का रोग लगा मोहे ऐसा’ , प्रेम को रोग माने जाने की सार्वभौमिक सत्य की इस दुनिया में प्रेम असाध्य रोग है किंतु जैसा कि मैं पहले ही कह चुकी हूं यह संग्रह प्रेम के बारे में आपके तमाम पूर्वाग्रहों को पूरी तरह गलत साबित कर देगा , यहां प्रेम को रोग का निदान माना गया है, जो किसी एंटीबायोटिक दवा या सर्जरी से भी अधिक कारगर है-

‘तुम और तुम्हारा स्पर्श
उन दिनों कोलेस्ट्रॉल पिघला देते थे
मेडिकल रिपोर्ट्स बता रही हैं
करवानी ही होगी एंज्योप्लास्टी भी
शायद नसों के अंदर रक्त का बहाव
कोलेस्ट्रॉल के बांध में बँध कर रह गया
आखिर तुम, वह तुम्हारा स्पर्श
अब संभव भी तो नहीं है
वरना एक सर्जरी से बच जाता’

स्त्रियों के लिए स्पेस है उनकी असहमति भी प्रेम है, रोने के लिए कंधा है (भले ही वह पूर्व में छोड़ कर जा चुकी हैं), लौट आने के रास्ते हैं, चॉकलेट न देने के पीछे बढ़ते शुगर लेवल की फिक्र है,
‘उम्रदराज प्रेम’ में प्रौढ़ स्त्री के सौंदर्य का वर्णन काबिलेतारिफ है-

‘उम्र की एक निश्चित दहलीज
पार कर चुकी खूबसूरत महिलाएं
उनके चेहरे पर खींची हल्की रेखाएं
ऐसे जैसे ठंडे ऑस्ट्रेलिया के डाउंस घास के मैदान में
कुछ पथिक चलते रहे
और बन गई पगडंडियां’

पूर्व प्रेमिका के नाम को अपनी बेटी के लिए सुरक्षित रखता प्रेमी, दुनिया का सबसे खूबसूरत और पवित्र पुरुष लगने लगता है।

‘विस्थापन’ कविता उस प्रत्येक युवा की पीड़ा है जो रोजी रोटी कमाने के लिए घर से सैकड़ों मील दूर अनजान शहर में पड़ा है, इस कविता की वेदना को विस्तार देती है ‘गुड बाय पापा’ कविता, जिसमें जब यही विस्थापित बेटे घर पहुंचते हैं तो उन्हें पिता के उष्ण आलिंगन के स्थान पर मिलती है सिर्फ उनकी ठंडी हथेली!!

फितरत, महल सा घर, मठाधीश, अमीबा, राजपथ, अपाहिज प्रार्थना, मृत्यु आदि कविताओं में सिस्टम से सवाल है, जिम्मेदार, जागरूक नागरिक की चिंता हैं। गणितीय आकृतियों पर क्षणिकाएं पढ़कर आप इनका अपने पाठ्यक्रम (जब आप कक्षा में गणित पढ़ते होंगे) में शामिल न होने का अफसोस भी कर सकते हैं, इसके अलावा अन्य क्षणिकाएं भी भोजन उपरांत की स्वीट डिश जैसी अनुभूति कराती हैं।

‘हिंदी युग्म’ प्रकाशन से प्रकाशित यह संग्रह पठनीय है, नए अंदाज की कविताएं पाठकों की साहित्यिक चेतना को निश्चित ही सकारात्मक ऊर्जा से भरने का काम करेंगी ।
संग्रह की भाषा पठनीय, सरल, प्रवाहपूर्ण, सहज, संप्रेषणीय है। लेखक को बधाई..!