यूएनएससी में भारत की स्थायी सदस्यता का प्रश्न: नेहरू के संदर्भ में- मोहित कुमार उपाध्याय

हाल ही में भारत 8वीं बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुना गया है। भारत के अलावा मैक्सिको, आयरलैंड एवं नार्वे को भी अस्थायी सदस्यों के रूप में चुना गया। संयुक्त राष्ट्र के 192 सदस्य देशों में से 184 सदस्यों ने भारत के पक्ष में वोट दिया। अस्थायी सदस्य के रूप में भारत का कार्यकाल 2 वर्ष का होगा। इस महत्वपूर्ण अवसर पर भारत ने कहा हैं कि इन दो वर्षों के दौरान उसकी प्राथमिकता आतंकवाद के खिलाफ मुहिम को और मजबूत बनाना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट के जरिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के लिए वैश्विक समुदाय द्वारा दिखाए गए समर्थन के लिए आभार व्यक्त करते हुए कहा हैं कि भारत वैश्विक शांति, सुरक्षा और समानता को बढावा देने के लिए सभी सदस्य देशों के साथ मिलकर काम करेगा।
एक ओर जहां भारत ने यूएनएससी में अस्थायी सदस्यता प्राप्त की, वहीं दूसरी ओर देश में इस बात पर चर्चा शुरू हो गई हैं कि जवाहरलाल नेहरू के बार-बार चीनी राग अलापने के कारण भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता प्राप्त करने में असफल रहा।
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के चीनी प्रेम से पूरा विश्व परिचित हैं और इस तथ्य की पुष्टि उनके हिंदी चीनी भाई भाई के नारे से होती है। किसी भी देश के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है और यही कारण हैं कि कोई भी राष्ट्र, चाहे परिस्थितयां कितनी भी विकट क्यों न हो, अपने राष्ट्रीय हितों के साथ कोई समझौता नहीं करता है। जवाहरलाल नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित के बीच हुए पत्राचार इस बात की ओर इशारा करता हैं कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत आदर्श (भारत से पहले चीन को स्थायी सदस्यता) के सामने राष्ट्रीय हितों को तिलांजलि देकर संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता प्राप्त करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया था, जिसका खामियाजा भारत को समय समय पर विभिन्न समस्याओं के रूप में भुगतना पड़ता हैं। जिस चीन की स्थायी सदस्यता के लिए नेहरू ने अपना अडियल रवैया बनाए रखा वहीं चीन अपनी विस्तारवादी एवं महत्वाकांक्षी नीतियों के कारण और एशिया एवं विश्व में सुपर पाॅवर बनने के लिए भारत को सीमा विवाद में उलझाकर परेशान करता रहता है। जिसका हालिया उदाहरण पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारतीय एवं चीनी सैनिकों के बीच हिंसक झड़प के रूप में सामने आया जिसमें लगभग बीस भारतीय जवान शहीद हो गए।
24 अगस्त 1950 को जवाहरलाल नेहरू को अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित (अमेरिका में तत्कालीन भारतीय राजदूत) का एक पत्र मिला। अपने उस पत्र में विजयलक्ष्मी पंडित ने नेहरू को लिखा था, ‘अमेरिका के विदेश मंत्रालय में चल रही एक बात तुम्हें भी मालूम होनी चाहिये। वह है, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से (ताइवान के राष्ट्रवादी) चीन को हटा कर उस पर भारत को बिठाना। इस प्रश्न के बारे में तुम्हारे उत्तर की रिपोर्ट मैंने अभी-अभी रॉयटर्स (समाचार एजेंसी) में देखी है पिछले सप्ताह मैंने (जॉन फ़ॉस्टर) डलेस और (फ़िलिप) जेसप से बात की थी, दोनों ने यह सवाल उठाया और डलेस कुछ अधिक ही व्यग्र लगे कि इस दिशा में कुछ किया जाना चाहिये। पिछली रात वॉशिंगटन के एक प्रभावशाली कॉलम-लेखक मार्क़िस चाइल्ड्स से मैंने सुना कि डलेस ने विदेश मंत्रालय की ओर से उनसे इस नीति के पक्ष में जनमत बनाने के लिए कहा है। मैंने हम लोगों का उन्हें रुख बताया और सलाह दी कि वे इस मामले में धीमी गति से चलें, क्योंकि भारत में इसका गर्मजोशी के साथ स्वागत नहीं किया जायेगा।’
पत्र के जवाब में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा, ‘तुमने लिखा है कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से चीन को हटा कर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है. जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इसका अनुमोदन नहीं करेंगे। हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी। चीन का साफ़-साफ़ अपमान होगा और चीन तथा हमारे बीच एक तरह का बिगाड़ भी होगा। मैं समझता हूं कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय इसे पसंद तो नहीं करेगा, किंतु इस रास्ते पर हम नहीं चलना चाहते। हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे, मेरा समझना है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगले अधिवेशन में इस विषय को लेकर एक संकट पैदा होने वाला है। जनवादी चीन की सरकार अपना एक पूर्ण प्रतिनिधिमंडल वहां भेजने जा रही है। यदि उसे वहां जाने नहीं दिया गया, तब समस्या खड़ी हो जायेगी। यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ और कुछ दूसरे देश भी संयुक्त राष्ट्र को अंततः त्याग दें। यह (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय को मनभावन भले ही लगे, लेकिन उस संयुक्त राष्ट्र का अंत बन जायेगा, जिसे हम जानते हैं। इसका एक अर्थ युद्ध की तरफ और अधिक लुढ़कना भी होगा।’
1946 में चीन में गृह-युद्ध आरंभ होने पर चीन की साम्यवादी सेना ने उत्तरी एवं पूर्वी चीन के अनेक प्रदेशों पर कब्जा कर लिया। 1 अक्टूबर 1949 को साम्यवादियों ने पेकिंग में “लोकगणराज्य” की घोषणा की और सोवियत संघ सहित अनेक देशों ने इस साम्यवादी सरकार को मान्यता दी। भारत ने भी सोवियत संघ का अनुसरण करते हुए चीन की इस नवीन सरकार को अपनी मान्यता प्रदान की। परंतु अमेरिका ने चीन की इस साम्यवादी सरकार को मान्यता न देकर फारमोसा स्थित राष्ट्रवादी सरकार (रिपब्लिक ऑफ चाइना, ताइवान) को चीन की सरकार के रूप में मान्यता प्रदान की और अपना संबंध बनाए रखा।
वास्तव में अमेरिका चाहकर भी च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी सरकार को खुलकर मान्यता प्रदान नहीं कर सका क्योंकि इससे सोवियत संघ का साम्यवादियों के पक्ष में खुला समर्थन करने का खतरा बढ़ जाता। इसी वजह को ध्यान में रखते हुये अमेरिका एवं सोवियत संघ दोनों ही इस टकराव से बचने के लिए रिपब्लिक ऑफ चाइना (ताइवान) के स्थान पर भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का अनौपचारिक समर्थन कर रहे थे।
एक अन्य पक्ष से इस बात को बल मिलता हैं कि अमेरिका यह कभी नहीं देखना चाहता था कि सुरक्षा परिषद में पहले से ही मौजूद साम्यवादी सोवियत संघ के होते हुए किसी दूसरे साम्यवादी देश को शामिल किया जाए। इसीलिए भारत सुरक्षा परिषद में रिपब्लिक ऑफ चाइना(अविभाजित चीन, ताइवान) की तुलना में अमेरिका की पहली पसंद था।

प्रधानमंत्री नेहरू की इस विषय पर व्यक्तिगत विचार यह था कि ‘भारत कई कारणों से सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के सुयोग्य है. किंतु हम इसे चीन की क़ीमत पर नहीं चाहते।
सोवियत संघ प्रधानमंत्री बुल्गानिन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता निकिता ख्रुश्चेव, नवंबर 1955 में पहली बार, एक लंबी यात्रा पर एकसाथ भारत आये थे।
बुल्गानिन ने एक सम्मेलन में कहा ‘हम सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्थिति और तनावों में कमी लाने के बारे में बातें कर रहे हैं और यह सुझाव देना चाहते हैं कि भारत को छठे सदस्य के रूप में सुरक्षा परिषद में शामिल किया जा सकता है।’ इस पर नेहरू की प्रतिक्रिया थी, ‘बुल्गानिन शायद जानते हैं कि अमेरिका में कुछ लोग सुझाव दे रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में चीन की सीट भारत को दी जानी चाहिये। यह तो हमारे और चीन के बीच खटपट करवाने वाली बात होगी। हम इसके सरासर ख़िलाफ़ हैं। हम कोई आसन पाने के लिए अपने आप को इस तरह आगे बढ़ाने के विरुद्ध हैं, जो परेशानी पैदा करने वाला है और भारत को विवाद का विषय बना देगा।’
नेहरू ने चीन की सदस्यता का समर्थन करते हुए कहा ‘भारत को यदि सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाया जाता है तो पहले संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन करना होगा। हमारा समझना है कि ऐसा तब तक नहीं किया जाना चाहिये, जब तक पहले चीन की और संभवतः कुछ दूसरों की सदस्यता का प्रश्न हल नहीं हो जाता। मैं समझता हूं कि हमें पहले चीन की सदस्यता पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये। (संयुक्त राष्ट्र) चार्टर में संशोधन करने के बारे में बुल्गानिन का क्या विचार है, हमारे विचार से इसके लिए सही समय अभी नहीं आया है।’
नेहरू के इस बेढंगे चीनी प्रेम के सामने अपनी निराशा प्रकट करते हुए बुल्गानिन ने कहा कि ‘हमने सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का प्रश्न इसलिए उठाया, ताकि हम आपके विचार जान सकें। हम भी सहमत है कि यह सही समय नहीं है, सही समय की हमें प्रतीक्षा करनी होगी।’
इससे जाहिर होता हैं कि नेहरू इस संदर्भ में यदि अपने काल्पनिक विश्व के स्वप्न से बाहर आकर विचार करते एवं अमेरिका एवं सोवियत संघ की भारत के पक्ष में बनी सद्भावना का लाभ उठाने का प्रयास करते तो शायद आज भारत वीटो पावर प्राप्त करने वाले देशों की गिनती में शामिल हो जाता और भारत विश्व में सुपर पावर के रूप में जाना जाता। परंतु नेहरू के अंतर्राष्ट्रीयतावाद में अत्यधिक विचार रखने और चीन में अत्यधिक श्रद्धा के कारण उन्होंने देशहित की बली चढ़ा दी।
लोकसभा में चर्चा के दौरान किसी सदस्य द्वारा यह प्रश्न किया गया कि क्या भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का अनौपचारिक प्रस्ताव ठुकराया है। इस प्रश्न के जवाब में नेहरू ने कहा कि इस तरह का कोई औपचारिक या अनौपचारिक प्रस्ताव नहीं मिला है। इसके बारे में प्रेस में कुछ अस्पष्ट संदर्भ आये हैं, जिनका कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है। भारत को सदस्यता (सुरक्षा परिषद की) प्रस्तावित किये जाने और भारत द्वारा उसे नकारे जाने का कोई प्रश्न नहीं है।”
जबकि इससे कुछ समय पहले मुख्यमंत्रियों के नाम से लिखे पत्र में नेहरू ने यह दावा किया था कि उन्हें इस संदर्भ में अमेरिका द्वारा ऐसा सुझाव प्राप्त हुआ था। मुख्यमंत्रियों के नाम लिखे पत्र में नेहरू ने लिखा था कि अनौपचारिक रूप से, अमेरिका ने ऐसे सुझाव दिये हैं कि चीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना लेना चाहिए, लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं लेना चाहिए, और भारत को सुरक्षा परिषद में जगह मिलनी चाहिए। हम बेशक इस सुझाव को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इसका मतलब होगा चीन से संबंध बिगाड़ लेना और यह चीन जैसे महान देश के लिए बहुत अनुचित होगा कि उसे सुरक्षा परिषद में जगह नहीं मिले। इसलिए हमने ऐसा सुझाव देने वालों को स्पष्ट कर दिया है कि हम इस सुझाव पर सहमत नहीं हो सकते हैं। हमने इससे आगे जाकर यह भी कहा है कि भारत इस समय सुरक्षा परिषद में प्रवेश करने के लिए व्यग्र नहीं है, भले ही एक महान देश के रूप में इसे वहाँ होना चाहिए। पहला कदम यह उठाया जाना चाहिए कि चीन को उसका न्यायसंगत स्थान मिले और उसके बाद भारत के सवाल पर अलग से विचार किया जा सकता है।”
इससे स्पष्ट होता हैं कि एक ओर जहां नेहरु भारत के लोकतंत्र के मंदिर में पूरे देश को संबोधित करते हुए यह कहते हैं कि उन्हें ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं मिला। वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्रियों के नाम लिखे पत्र में वह दावा करते हैं कि अमेरिका की ओर से ऐसा अनौपचारीक सुझाव प्राप्त हुआ। इससे जहां उनके जवाबों में गतिरोध नजर आता हैं, वहीं देश की जनता को गलत जानकारी देकर भ्रम में रखा गया जो कि नैतिकता के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
नेहरु का मानना था कि साम्यवादी चीन एक महान देश हैं और चीन को अलग रखकर यदि भारत संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता प्राप्त कर लेता हैं तब यह इस महान देश के साथ अनुचित होगा। नेहरू का यह मत हास्यास्पद नजर आता है।
एक ओर जहां नेहरू सुरक्षा परिषद के विस्तार के मत का समर्थन कर रहे थे, वहीं उनकी यह भी शर्त थी कि विस्तार से पहले साम्यवादी चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त हो जाए।
नेहरू का यह दृष्टिकोण इस बात की ओर संकेत करता हैं कि उनमें व्यापक राजनीतिक दृष्टिकोण का स्पष्ट अभाव था और वह केवल स्वप्नदृष्टा राजनेता के तौर पर ही विश्व में अधिक पहचान बना पाये।
नेहरू के इस मत को अगर मान भी लिया जाये कि भारत द्वारा स्थायी सदस्यता प्राप्त कर लेने पर भारत एवं चीन के आपसी संबंधों में खटास पैदा हो जाएगी परंतु इस खटास का भारत की तुलना में चीन को ही अधिक नुकसान उठाना पड़ता क्योंकि किसी वीटो पावर प्राप्त देश (भारत के संदर्भ में) के खिलाफ कोई विरोधी कदम उठाना चीन के लिए इतना सहज कदम नहीं साबित होता।
साम्यवादी चीन (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) द्वारा न केवल पंचशील समझौते के अनुपालन का झूठा दिखावा किया गया बल्कि सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता प्राप्त करने के लिए भारत की सद्भावनाओं का दुरूपयोग करते हुए छल कपट की नीति अपनाई। जिसका उदाहरण 1962 का भारत चीन युद्ध रहा।
साम्यवादी चीन अपनी धूर्त नीति के बल पर 1971 में रिपब्लिक ऑफ चाइना के स्थान पर अमेरिका की सहायता से सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बना दिया गया।
वर्तमान में भारत द्वारा लगातार सुरक्षा परिषद में सुधार की मांग की जा रही हैं ताकि उसे सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता प्रदान की जाएं और महत्वपूर्ण बात यह हैं कि अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों द्वारा भारत की इस मांग का पुरजोर समर्थन किया जा रहा हैं। परन्तु चीन लगातार इस मामले में अडंगेबाजी लगा रहा हैं क्योंकि वह कभी नहीं चाहेगा कि एशिया में उसका प्रतिस्पर्धी भारत संयुक्त राष्ट्र के मंच पर एक वीटो पावर देश के रूप में सामने आए।
नेहरू की इस ऐतिहासिक भूल से सीखा जा सकता हैं कि किसी भी राष्ट्र के लिए देशहित सर्वोपरि होना चाहिए वरना इसकी अनदेखी करने पर भविष्य में राष्ट्र को विभिन्न जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

-मोहित कुमार उपाध्याय
राजनीतिक विश्लेषक