‘तुम्हीं से ज़िया है’ में हैं मुख़्तलिफ़ अंदाज़ की ग़ज़लें

कृति- तुम्हीं से ज़िया है (ग़ज़ल संग्रह)
ग़ज़लकार- सुभाष पाठक ‘ज़िया’
समीक्षक- आलम ख़ुर्शीद
प्रकाशन- अभिधा प्रकाशन
मूल्य-300/-
वर्ष- 2022
पृष्ठ-144

रोज़ टनों और मनों के हिसाब से नज़र आने वाली आज की ग़ज़लों पर उचटती सी भी नज़र डालें तो फ़ौरन यह अंदाज़ा हो जाता है कि आज के बेशतर शायर ऐसे अशआर कह रहें हैं जिन में भले ही कोई गहरी बात या ख़याल न हो मगर लह्जा चौंकाने वाला ज़रूर हो। मज़ामीन की बात करें तो इश्क़ और बदन के महवर पर ही आज की शायरी रक़्स करती नज़र आती है। ज़मीन और बह्र पर ग़ौर करें तो पूरी शायरी दो तीन आसान बहरों में सिमटी नज़र आती है। उन बहरों में भी फाइलातुन मुफ़ाएलुन फेलुन की बह्र में ही 80% ग़ज़लें नज़र आती हैं।

ऐसा क्यूँ है! इस सवाल का बेहद आसान जवाब यह है कि ऐसी शायरी को गंभीर पाठक की नहीं मंचों के श्रोता की तलाश है, लेकिन इस अफ़रातफ़री के दौर में कई नौजवान शायर ऐसे भी नज़र आते हैं जिन के अंदर इस भीड़ से अलग चलने की ख़्वाहिश अँगड़ाइयां लेती नज़र आती है और उनके यहाँ अपनी अलग पहचान की सलाहियत भी साफ़ झलकती है।

‘सुभाष पाठक ज़िया’ भी उन में एक नुमायाँ नाम है। सुभाष की कुछ ग़ज़लें पढ़ कर अंदाज़ा हुआ कि इश्क़ ओ मुहब्बत के अलावा भी उस के पास कहने को बहुत कुछ है। वह अपनी बात गंभीरता से कहना चाहता है और इस के इज़हार के लिए मुख्तलिफ़ अंदाज़ भी अपनाता है। अपने नाम के अनुरूप उस के यहाँ सुभाषिता की मधुरता भी है और सुभासिता की चमक भी। 

मुख्तलिफ़ और मुश्किल ज़मीनों में कही गयी उस की ग़ज़लें यह सरगोशी करती हैं कि ग़ज़ल की सिन्फ़ से उस का लगाव फ़ितरी है और क़ुदरत ने उसे क़ूवते गोयाई से भी नवाज़ा है, लेकिन अपने ज़माने के चलन से बिलकुल कट जाना भी बेहद मुश्किल काम है। सो कभी-कभी उस की शायरी उस चमक के झांसे में आ जाती है, कहीं कहीं उस के क़दम लड़खड़ाते भी हैं, लेकिन वह जल्द ही संभल जाता है और उस क्षणिक चमक से दामन छुड़ा कर अपने रास्ते पर चल पड़ता है।

जिन जिन ग़ज़लों में उस ने अपनी राह पर साबित-क़दमी से चलने की कोशिश की है, कोई न कोई अच्छा शे’र कहने में ज़रुर कामयाबी हासिल की है। यहाँ मैं ज़रुरत महसूस नहीं करता कि उस के मुख़्तलिफ़ अच्छे अशआ’र के हवाले दे कर अपनी बात साबित करूँ और न इस की गुंजाइश ही यहाँ मौजूद है। उस के चमकदार अशआ’र ख़ुद ही अपने पाठक से अपना परिचय करा देंगे।

यह शायर अगर इसी ज़ौक़ ओ शौक़ से रियाज़त करता  रहा और भीड़ की भेड़ चाल से  बचते हुए अपने रास्ते पर चलता रहा तो मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले दिनों इस की ग़ज़लें अपनी ज़िया से शायरी के आसमान को मुनव्वर करेंगी। मेरी दुआएँ इस के साथ हैं और मैं उस वक़्त का मुंतज़िर हूँ।