जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥
अर्थ
हनुमान चालीसा के पाठ करने वालों को निश्चित रूप से सिद्धि मिलती है। भगवान शिव इसके गवाह हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि वे प्रभु के भक्त हैं। अतः प्रभु उनके हृदय में निवास करें।
भावार्थ
तुलसीदास जी भगवान शिव को साक्षी बनाकर कह रहे हैं कि जो भी व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसको निश्चित रूप से सिद्धियां प्राप्त होगी। तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा की रचना भगवान शिव की प्रेरणा से की है। अतः वे उन्ही को साक्षी बता रहे हैं। अंतिम मांग के रूप में तुलसीदास जी कह रहे हैं की वे हरि के भक्त। हरि शब्द का संबोधन भगवान विष्णु और उनके अवतारों के लिए किया जाता है। अतः यहां पर यह श्रीराम के लिए लिया गया है। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी हनुमान जी पर दबाव डालकर मांग कर रहे हैं की वे हमेशा तुलसीदास जी के हृदय में निवास करें।
संदेश
सुख-शांति प्राप्त करने के लिए भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए।
चौपाई को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ-
1-जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
हनुमान चालीसा की इस चौपाई से शिव पार्वती की कृपा होती है।
2-तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥
इस चौपाई का पाठ निरंतर करने से प्रभु श्री राम और हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती है।
विवेचना
जब कोई ग्रंथ आपके सामने आता है तो उसको पढ़ने के लिए आपके अंदर एक धनात्मक प्रोत्साहन होना चाहिए। यह प्रोत्साहन ग्रंथ के अंदर जो विषय है उस विषय के प्रति आपकी रूचि हो सकती है, जैसे जंगल के ज्ञान की पुस्तकें। यह भी हो सकता है, उसके ग्रंथ में कुछ ऐसा ज्ञान दिया हो जिससे आपको भौतिक लाभ हो सकता हो, जैसे ही योग की पुस्तकें। हो सकता है कि वह ग्रंथ आपको धन कमाने के रास्ते बताएं जैसे इकोनामिक टाइम्स आदि। अगर ग्रंथ में कोई ऐसी बात नहीं होगी जो आपको उस ग्रंथ को पढ़ने के लिए प्रेरित करें तो आप उस ग्रंथ को नहीं पढ़ेंगे।
पहली चौपाई “जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥” में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी प्रोत्साहन को देने की कोशिश की है। जिससे आप हनुमान चालीसा को पढ़ें और उसका पाठ कर लाभ प्राप्त कर सकें। इसके पहले की चौपाई में मैंने हनुमान चालीसा से डॉ तलवार को प्राप्त होने वाले लाभ के बारे में बताया था। अगर मैं किसी और लाभ के बारे में बताता तो संभवत हमारे बुद्धिमान लोगों को आलोचना करने का मौका मिल जाता। इसलिए मैंने एक ऐसे प्रकरण का उल्लेख किया है जो सब को ज्ञात है तथा दैनिक जागरण जैसे प्रतिष्ठित अखबार ने प्रकाशित किया था। जेल के अधिकारियों ने दैनिक जागरण को बताया था, डॉ तलवार स्वयं प्रतिदिन जब भी उनको समय मिलता था, वे हनुमान चालीसा का पाठ करते थे। इसके अलावा जेल के अन्य लोगों को भी हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। जब डॉ तलवार हाईकोर्ट से बरी हुए तब उन्होंने सबको बताया कि यह हनुमान जी की कृपा से संभव हुआ है। प्रकरण कुछ यूं है-
26 नवम्बर 2013 को विशेष सीबीआई अदालत ने आरुषि-हेमराज के दोहरे हत्याकाण्ड में राजेश एवं नूपुर तलवार को आईपीसी की धारा 302/34 के तहत उम्रक़ैद की सजा सुनाई। दोनों को धारा 201 के अन्तर्गत 5-5 साल और धारा 203 के अन्तर्गत केवल राजेश तलवार को एक साल की सजा सुनायी। इसके अतिरिक्त कोर्ट ने दोनों अभियुक्तों पर जुर्माना भी लगाया। सारी सजायें एक साथ चलेंगी और उम्रक़ैद के लिये दोनों को ता उम्र जेल में रहना होगा। इस आदेश के विरोध में दोनों लोगों ने हाईकोर्ट में याचिका लगाई। 12 अक्टूबर 2017 को इलाहाबाद हाइकोर्ट द्वारा आरुषि के माता-पिता को निर्दोष करार दे दिया गया और वे जेल से रिहा हो गये।
हनुमान चालीसा की और हनुमान जी की कृपा की का एक और प्रत्यक्ष उदाहरण छतरपुर जिले के बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र शास्त्री और भिंड जिला के रावतपुरा सरकार सिद्ध क्षेत्र के श्री रविशंकर जी महाराज का प्रकरण है। दोनों के ऊपर उनके इष्ट की महान कृपा कभी भी देखी जा सकती है। इनके अलावा ईशान महेश जी जो कि एक लेखक है उन्होंने वृंदावन के श्री चिरंजीलाल चौधरी जी का नाम बताया है, जिनके ऊपर भी पवन पुत्र की कृपा है। चौथा उदाहरण श्री एमडी दुबे साहब का है, जो संजीवनी नगर जबलपुर में निवास करते हैं।
इस प्रकार हम ने चार उदाहरण बताएं हैं। ये सभी वर्तमान समय में जीवित हैं और जिनके ऊपर हनुमत कृपा है। मैंने वर्तमान के उदाहरण ही लिए हैं। इसका कारण यह है अगर कोई परीक्षण करना चाहे तो कर सकता है।
इस चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जो व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसको सिद्धि प्राप्त हो जाएगी। यहां प्रमुख बात यह है की पाठ करने का अर्थ पढ़ना नहीं है। पाठ करने की अर्थ को हम पहले की चौपाइयों की विवेचना में विस्तृत रूप से बता चुके हैं। संक्षेप में मन क्रम वचन से एकाग्र होकर बार-बार पढ़ने को पाठ करना कहते हैं। तुलसीदास जी ने इसी चौपाई में कहा है कि इसके साक्षी गौरीसा अर्थात गौरी के ईश भगवान शिव स्वयं हैं।
हम सभी जानते हैं कि तुलसीदास जी को गोस्वामी तुलसीदास भी कहा जाता है। गोस्वामी का अपभ्रंश गोसाई है। गोसाई समुदाय के गुरु भगवान शिव होते हैं। तुलसीदास जी ने इस पुस्तक को अपने गुरु को समक्ष मानते हुए लिखा है। अतः उन्होंने कहा है कि इस पुस्तक में लिखी गई हर बात के साक्षी उनके गुरु हैं। गोसाई के गुरु भगवान शिव होते हैं अतः भगवान शिव साक्षी हुए। हनुमान चालीसा में हनुमत चरित्र पर पूर्ण रुप से प्रकाश डाला गया है।
इस चौपाई से गोस्वामी तुलसीदास जी यह भी कहना चाहते हैं श्री हनुमान जी का जो हनुमान चालीसा में चरित्र चित्रण किया गया है उसका बार-बार पाठ करना चाहिए। एकाग्रता से पाठ करने पर आपकी वाणी पवित्र होगी। इसके अलावा आपके जीवन का दृष्टिकोण बदलेगा। जीवन का दृष्टिकोण बदलने से आपको सभी बंधनों से मुक्ति मिल जाएगी। जो ग्रंथ पढना है उसके प्रति आत्मीयता और आदर होना चाहिए तभी आप में संस्कार आएगा। हनुमान चालीसा पढते समय हनुमानजी कैसे हैं? हनुमानजी के विविध गुणों को जानकर-पहचानकर सभी बंधनों से हम मुक्त हो सकते हैं।
हनुमान चालीसा पढ़ने से आप सिद्ध हो जाएंगे इसकी गारंटी स्वयं भगवान शिव दे रहे हैं। आइए हम इस पर विचार करते हैं कि सिद्ध होना क्या है।
यह एक संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो। सिद्धि का शाब्दिक अर्थ है महान शारीरिक मानसिक या आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त करने से है। जैन दर्शन में सिद्ध शब्द का प्रयोग उन आत्माओं के लिए किया जाता है जो संसार चक्र से मुक्त हो गयीं हों।
ज्योतीरीश्वर ठाकुर जो बिहार के एक विद्वान हुए हैं उनके द्वारा सन 1506 में मैथिली में रचित वर्णरत्नाकर में 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख है। इसकी विशेष बात यह है कि इस सूची में सर्वाधिक पूज्य नाथों और बौद्ध सिद्धाचार्यों के नाम सम्मिलित किए गये हैं।
अतः इस चौपाई का आशय है कि आप मन क्रम वचन की एकाग्रता के साथ हनुमान चालीसा का पाठ करें। बार बार पाठ करें। आपको सिद्धि मिलेगी। इस बात की गवाही भगवान शिव भी स्वयं देते हैं।
हनुमान चालीसा की चौपाई श्रेणी की अंतिम पंक्ति है-
“तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥”
इस पंक्ति में तुलसीदास जी ने पुनः हनुमान जी से मांग की है। इस चौपाई के पहले खंड में तुलसीदास जी ने अपना परिचय दिया है उन्होंने बताया है कि मैं हमेशा हरि याने श्री राम चंद्र जी का सेवक हूं। अब यहां पर तीन बातें प्रमुखता से आती हैं। पहली बात है कि इस चौपाई में तुलसीदास जी ने अपना नाम क्यों दिया? दूसरी बात उन्हों ने अपने आपको हरि का दास क्यों बताया? तीसरी बात है की उन्होंने अपने आपको श्री हनुमान जी का दास क्यों नहीं बताया? ये प्रश्न संभवत आपके दिमाग में भी आ रहे होंगे। आपने इनका उत्तर भी सोचा होगा। हो सकता है मेरा और आपका जवाब आपस में ना मिले। आपसे अनुरोध है कि आप मेरे ईमेल पर अपने विचार अवश्य भेजें। मेरे ईमेल का पता है-
[email protected]
बहुत पहले पुस्तके ताड़ पत्र पर लिखी जाती थी। लिखने में समय बहुत लगता था तथा ज्यादा प्रतियां लिखी नहीं जा पाती थी। अतः उस समय मौखिक साहित्य ज्यादा रहता था। इसे मौखिक परंपरा का काव्य कहते थे। साहित्य जब लिखित रूप में होता हैं तो उस पर लेखक या कवि का नाम भी होता है। मौखिक परंपरा में कवि का नाम बताना भी आवश्यक था। इस आवश्यकता की पूर्ति कवि कविता के अंत में अपने नाम को लिखकर, कर देता था। इसे कवि का हस्ताक्षर भी कहते हैं। संभवत तुलसीदास जी ने इसी कारणवश हनुमान चालीसा के अंत में अपने हस्ताक्षर किए हैं। मगर यहां पर एक दूसरा कारण और भी है। तुलसीदास जी ने इस पंक्ति के माध्यम से अपना मांग पत्र भी प्रस्तुत किया है।
हमारा दूसरा प्रश्न है, तुलसीदास जी ने अपने आप को श्री रामचंद्र जी का दास क्यों कहा है।
भक्तों के कई प्रकार होते हैं। कुछ लोग अपने आपको अपने इष्ट का दास कहते हैं। जैसे तुलसीदास जी, हनुमान जी आदि।
कुछ लोग अपने को अपने इष्ट का मित्र बताते हैं। इसे सांख्य भाव भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको अपने इष्ट का मित्र बताते हैं और मित्रवत व्यवहार करने की मांग भी करते हैं। जैसे की गोपियां भगवान कृष्ण को अपना मित्र मानती थी। कुछ लोग अपने इष्ट को अपना पति मानते हैं। जैसे श्री राधा जी भगवान कृष्ण को अपना पति मानती थीं।
यह सभी सगुण भक्ति की धाराएं हैं। कोई भी भक्त एक या एक से अधिक प्रकार से ईश्वर से प्रेम कर सकता है। मीराबाई भगवान कृष्ण की भक्त थीं। वे कृष्ण को अपना प्रियतम, पति और रक्षक मानती थीं। वे स्वयं को भगवान कृष्ण की दासी बताते हुए कहती हैं-
“दासी मीरा लाल गिरधर,
हरो म्हारी पीर”
गीता में भगवान श्रीकृष्ण चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥ (7।16)
(श्रीमद्भगवत गीता/अध्याय 7/श्लोक 16)
अर्थात, हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है। इन भक्तों का विवरण निम्नानुसार है-
1-आर्त- आर्त भक्त वह है जो कष्ट आ जाने पर या अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है। हर युग में इस तरह के भक्तों की अधिकता रही है।
2-अर्थार्थी- अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।
3-जिज्ञासु- जिज्ञासु भक्त संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है।
4-ज्ञानी- ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं।
अब प्रश्न उठ रहा है की सर्वश्रेष्ठ भक्त कौन है?
इसका उत्तर भगवान ने स्वयं गीता ने दिया है-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥ 17॥
श्री कृष्ण जी कहते हैं कि जो परम ज्ञानी है और शुद्ध भक्ति भाव से ईश्वर की भक्ति में लगा रहता है, वहीं सर्वश्रेष्ठ भक्त है। इसलिए क्योंकि उस भक्तों के लिए मैं प्रिय हूं और मेरे लिए वह भक्त प्रिय है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है और साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।
भक्तों के तरह से भक्ति भी कई प्रकार की होती है। भक्ति का वर्गीकरण भी कई प्रकार से किया गया है। भक्तों के वर्गीकरण का एक तरीका नवधा भक्ति भी है। कहां गया है-
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा)– इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवण: ईश्वर की लीलाओं को सुनना, ध्यान पूर्वक सुनना और निरंतर सुनना।
कीर्तन: ईश्वर के गुण और लीलाओं को ध्यान मग्न होकर निरंतर गाना।
स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना।
पादसेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन: भगवान की मूर्ति को, भगवान के भक्तजनों को, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से सेवा करना।
दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
साख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
आत्मनिवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं की तुलसीदास जी के भक्ति दास भक्ति का एक उदाहरण है। तुलसीदास जी भगवान कृष्ण की गीता में दिए गए उपदेश के अनुसार ज्ञान भक्तों के भी उदाहरण हैं। इसके अलावा नवधा भक्ति में आत्म निवेदन की अवस्था में है जो की भक्ति का सबसे अच्छा उदाहरण है। इन्हीं सब कारणों से तुलसीदास जी ने अपने आप को श्री राम का दास कहा है।
अगला प्रश्न है कि हनुमान चालीसा हनुमान जी के ऊपर केंद्रित है। फिर इस ग्रंथ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने आपको श्री राम का दास क्यों कहा है? हनुमान जी का दास क्यों नहीं का कहा?
वाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र जी के अवतारी पुरुष होने की चर्चा है। इस ग्रंथ में महावीर हनुमान जी के पराक्रम की भी चर्चा है, लेकिन श्री हनुमान जी के ईश्वरी सत्ता के बारे में रामायण में अत्यंत अल्प लिखा गया है। वाल्मीकि के हनुमान बुद्धिमान हैं, बलवान हैं, चतुर सुजान हैं, लेकिन वो भगवान नहीं हैं।
तुलसीदास जी ने वाल्मीकि जी के इस अधूरे कार्य को भी पूरा कर दिया हैं। गोस्वामी तुलसी जी के श्री हनुमान जी एकादश रुद्र हैं। तुलसी के हनुमान जी एक महान ईश्वरीय सत्ता हैं जिनका जन्म राम काज के लिए हुआ है। रामचरितमानस में इस बात को कई जगह लिखा गया है। एक उदाहरण यह भी है-
“राम काज लगि तव अवतारा, सुनतहिं भयउ परबतकारा”
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में तो हनुमान जी की ईश्वरीय सत्ता का वर्णन किया ही है, साथ में उन्होंने हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमान बाहुक आदि की रचना कर हनुमान जी की अलौकिक सत्ता को स्थापित किया है।
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन चरित्र पर जाना पड़ेगा।
तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा अपने बाल्यकाल में लिखी थी। केवल अपने लिए लिखी थी। उस समय हनुमान चालीसा जन-जन के पास नहीं पहुंच पाई होगी। बाद में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखा। रामचरितमानस का विरोध काशी के ब्राह्मणों ने किया। इस विरोध के कारण रामचरितमानस को प्रसिद्धि मिली। कहा जाता है की भगवान विश्वनाथ जी ने भी रामचरितमानस की पवित्रता के ऊपर अपनी मुहर लगाई। रामचरितमानस लिखने के दौरान तुलसीदास जी पूरी तरह से राममय में हो गए थे। इसके बाद उन्होंने अपने पुराने सबसे पुराने ग्रंथ हनुमान चालीसा को फिर से लिखा। हो सकता है कि पुनर्लेखन में इस लाइन को बदला हो। इस लाइन को बदलना भी उचित था क्योंकि श्रीराम तो सबके प्रभु है। हनुमान जी के भी प्रभु हैं। तुलसीदास जी के भी प्रभु हैं। परंतु हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के प्रभु नहीं हैं। वे उनके भाई हैं सखा हैं और सेवक हैं।
आइए थोड़ी सी चर्चा तुलसीदास जी के राम भक्त बनने के कारणों के ऊपर करते हैं।
इसी पुस्तक में पहले मैं आपको बता चुका हूं कि तुलसीदास जी का बाल्यकाल कितनी परेशानियों से गुजरा। गुरु नरहरीदास जी उनको भगवान शिव की आज्ञा अनुसार अपने गुरुकुल में ले गए थे गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूर्ण कर गोस्वामी तुलसीदास जी अपने गांव आ गए। वे आसपास के गांव में राम कथा कहने लगे। अब वे काम करने लगे थे तो उनका विवाह पास के गांव के रत्नावली जी से हो गया। तुलसी दास अपनी पत्नी से अगाध प्रेम करते थे। एक बार जब रत्नावली अपने मायके में थी तब तुलसी उनके वियोग में इस कदर व्याकुल हुए कि रात के समय भयंकर बाढ़ में यमुना में बहे जा रहे, एक शव को पेड़ का तना समझकर उसी के सहारे अपनी ससुराल पंहुच गए।
ससुराल में सभी सो रहे थे । तुलसीदास जी एक रस्सी को पकड़कर अपनी पत्नी के कमरे में पहुंच गए। उनकी पत्नी का कमरा ऊपर की मंजिल पर था। सुबह मालूम चला कि जिसको वे रस्सी पकड़े थे वह वास्तव में सांप था। रत्नावली जी को यह बात अच्छी नहीं लगी। रत्नावली को लगा जब दूसरे लोगों को पता चलेगा, सभी मिलकर मेरी कितनी हंसी उड़ाएंगे। उन्होंने तुलसी को झिड़कते हुए डांट लगाई और कहा-
अस्थि चर्म मय देह मम तामे ऐसी प्रीति,
ऐसी जो श्री राम मह होत न तव भव भीति॥
रत्ना जी की इन शब्दों में तुलसीदास जी को जागृत कर दिया। यह जागृति उसी प्रकार की थी जैसा कि जामवंत जी ने समुद्र पार जाने के लिए हनुमान जी को जागृत किया था। अब तुलसीदास जी को सिर्फ रामचंद्र जी ही दिख रहे थे। इस प्रकार तुलसी दास जी को भगवान राम की भक्ति की प्रेरणा अपनी पत्नी रत्नावली से प्राप्त हुई थी।
अपने ससुराल से निराश हो तुलसी एक बार फिर राजापुर लौट आए। राजापुर में तुलसी जब शौच को जाते तो लौटते समय लोटे में बचा पानी रास्ते में पड़ने वाले एक बबूल के पेड़ में डाल देते। इस पेड़ में एक आत्मा रहती थी। आत्मा को जब रोज पानी मिलने लगा तो आत्मा तृप्ति होकर तुलसीदास जी पर प्रसन्न हो गई। वह आत्मा तुलसीदास जी के सामने प्रकट हुई। उसने पूछा कि आपकी मनोकामना क्या है? आप क्यों मुझे रोज पानी दे रहे हो? इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास जी ने राम जी के दर्शन की अभिलाषा प्रगट की।
यह सुनने के बाद उसने कहा कि श्री रामचंद्र जी के दर्शन के पहले आपको हनुमान जी के दर्शन करने होंगे। हनुमान जी आपका दर्शन आसानी से श्रीराम से करा सकते हैं। उन दिनों राजापुर में तुलसीदास जी की कथा चल रही थी। आत्मा ने स्पष्ट किया कि कथा में जो सबसे पहले आए और सबसे बाद में जाए, सबसे पीछे बैठे और उसके शरीर में कोढ़ हो तो वही श्री हनुमान जी होंगे। आप उनके पैर पकड़ लीजिएगा। गोस्वामी जी ने यही किया और कोढ़ी जी के पैर पकड़ लिए। बार-बार मना करने पर भी उन्होंने पैर नहीं छोड़ा। अंत में हनुमान जी प्रकट हुए।
श्री हनुमान जी ने तुलसीदास जी से कहा कि आप चित्रकूट जाकर वहीं निवास करें। चित्रकूट के घाट पर अपने इष्ट के दर्शन की प्रतीक्षा करें। तुलसीदास जी ने अपना अगला ठिकाना चित्रकूट बनाया। तुलसी चित्रकूट में मन्दाकिनी तट में बैठ प्रवचन करते हुए राम के इन्तजार में समय बिताने लगे। परंतु उनको श्री राम जी के दर्शन नहीं हुए। उन्होंने फिर से हनुमान जी को याद किया। हनुमान जी ने प्रकट होकर कहा श्री राम जी आए थे। आपने उनको तिलक भी लगाया था। परंतु संभवत आप उनको पहचान नहीं पाए।
तुलसीदास जी पछताने लगे कि वह अपने प्रभु को पहचान नहीं पाए। तुलसीदास जी को दुःखी देखकर हनुमान जी ने सांत्वना दिया कि कल सुबह आपको फिर राम लक्ष्मण के दर्शन होंगे। प्रातःकाल स्नान ध्यान करने के बाद तुलसी दास जी जब घाट पर लोगों को चंदन लगा रहे थे तभी बालक के रूप में भगवान राम इनके पास आए और कहने लगे कि “बाबा हमें चंदन लगा दो”। हनुमान जी को लगा कि तुलसीदास जी इस बार भी भूल न कर बैठें इसलिए तोते का रूप धारण कर गाने लगे-
‘चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥’
तुलसीदास जी श्री रामचंद्र जी को देखने के बाद अपनी सुध बुध खो बैठे। फिर रामचंद्र ने स्वयं ही तुलसीदास जी का हाथ पकड़कर अपने माथे पर चंदन लगाया। इसके बाद उन्होंने तुलसीदास जी के माथे पर तिलक किया। इसके बाद श्री रामचंद्र अंतर्ध्यान हो गए। इस घटना के उपरांत तुलसीदास जी ने अन्य ग्रंथ जैसे कवितावली दोहावली विनय पत्रिका और श्रीरामचरितमानस आदि ग्रंथों की रचना की। श्रीरामचरितमानस में उन्होंने श्री रामचंद्र जी के विभिन्न गुणों का बखान किया है जैसे कि तुलसी के राम पापी से पापी व्यक्ति को अपना लेते हैं। उनकी शरण में कोई भी आ सकता है-
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएं सरन प्रभु राखिहें तव अपराध बिसारि॥
हिंदुओं में शैव और वैष्णव संप्रदाय के बीच की एकता के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि-
शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहुं नहीं पावा॥
अर्थात: “जो भगवान शिव के द्रोही हैं, वो मुझे सपने में भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।”
श्रीराम जी पुनः कहते है-
शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।
तेहि नर करें कलप भरि, घोर नरक में वास॥
अर्थात: “जो शंकर के प्रिय हैं और मेरे द्रोही हैं या फिर जो शिव जी के द्रोही है और मेरे दास हैं वो नर हमेशा नरक में वास करते हैं।
उपरोक्त घटना से यह स्पष्ट होता है कि तुलसीदास जी श्री रामचंद्र जी के अनन्य भक्त थे।
आइए अब हम इस चौपाई के अंतिम शब्दों की चर्चा करते हैं। इस चौपाई में के अंत में लिखा है “कीजै नाथ हृदय महं डेरा”। इस पद का अर्थ बिल्कुल साफ है। तुलसीदास जी ने चौपाई क्रमांक 1 से 39 तक हनुमान जी की विभिन्न गुणों बखान किया है। अब तुलसीदास जी अपने इस किए गए कार्य का प्रतिफल की प्रार्थना कर रहे हैं। यह प्रार्थना उनके द्वारा लिखी गई इस चौपाई के अंत में है। यहां पर उन्होंने डेरा शब्द का उपयोग किया है। डेरा सामान्यतया उस स्थान को कहते हैं, जहां पर सेना ने एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के बीच में अस्थाई रूप से रुकती हैं और पडाव डालती।
तुलसीदास जी ने यहां पर सेना के अस्थाई रूप से रुकने वाले स्थान का जिक्र किया है। यह संभवत उस समय की परिस्थितियों के कारण है। उस समय मुसलमान आक्रन्ता हिंदुओं के गांव पर हमला करते थे और उनको परेशान करते हैं। इस परेशानी को हल करने का एक ही जरिया गोस्वामी तुलसीदास जी के दिमाग में आया। उनका कहना है हनुमान जी आकर उनके हृदय में अपना डेरा जमा ले तो कोई मुसलमान आक्रन्ता उन को तंग नहीं कर पाएगा। हो सकता है ऐसा उन्होंने अकबर द्वारा तंग किए जाने के कारण कहा हो। तुलसीदास जी अकबर से डरकर उसके कहे अनुसार कार्य नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना की हनुमान जी आप मेरे दिल में आकर के रहो जिससे मैं अकबर का विरोध कर सकूं। हुआ भी वही।
कहते हैं कि श्री तुलसीदास जी जब तक अकबर के यहां जेल में रहे, तब बंदरों की फौज ने आकर आगरा में डेरा डाल दिया। इस फौज ने अकबर और उसके दरबारियों को बेरहमी के साथ परेशान किया। इसी परेशानी के कारण अकबर को तुलसीदास जी को छोड़ना पड़ा। इस प्रकार हनुमान जी ने डेरा डाल कर के हमारे तुलसीदास जी को बचाया। इस प्रकार तुलसीदास जी की प्रार्थना सफल हुई।
इस प्रकार अंतिम 40वीं चौपाई में तुलसीदास जी चाहते हैं की वे हनुमान जी, जिन्होंने सदैव तुलसीदास जी की मदद की है, जिन के कारण श्री तुलसीदास जी को श्री रामचंद्र जी के दर्शन हुए, जिन के कारण श्री रामचंद्र जी ने वरदान स्वरूप तुलसीदास जी को तिलक किया, वे हनुमान जी श्री तुलसीदास जी के हृदय में निवास करें।
जय श्री राम
जय हनुमान