कोई भी कलाकार हो या साहित्यकार हो वह जब एक साहित्य लिखता है या विशेष कलाकारी करता है तो वह रचना या कला उस समय के सामाजिक राजनैतिक आर्थिक आदि परिवेश तथा परिस्थितियों व उस समय की प्रचलित दर्शन आदि पर आधारित होता है। रचनाकार या कलाकार की भावनाओं और व्यक्तित्व का असर भी उस रचना पर या कलाकारी पर होता है, परंतु किसी भी साहित्यकार या कलाकार के लेखन को या उसके कला को पूर्णतया उसके निजी जीवन से जोड़कर उसके व्यक्तित्व से जोड़कर ही बस एक निष्कर्ष निकाल देना कदाचित उचित नहीं है हर रचना या कला की एक वैचारिक पृष्ठभूमि होती है और जो कुछ भी लेखक लिखता है रचना करता है या कलाकार कलाकारी करता है वह उसके अपने वैचारिक आधार पर प्रफुल्लित होता है जो कि उस काल के हर प्रकार की परिस्थितियों पर आधारित होता है रचनाकार साहित्यकार या कलाकार के कार्यों को पूर्णतया उनके निजी व्यक्तित्व का आईना मानना गलत है रचना या कलाकारी उसके जीवन से मुक्त होती है।
किसी भी साहित्यकार या कलाकार का एक वृहद वैचारिक आधार होता है किसी भी रचना या कला की मूल भावना को उसमें उद्धृत मूल उद्देश्य को अनदेखी कर कई बार रचना या उस कला की भाषा रूप संरचना और भिन्न-भिन्न अन्य बातों पर गौर करते हुए मुल्यांकण किया जाता है और यह भूला दिया जाता हैं कि उस रचना में या उस कला में कलाकार की कौन सी अहम भावना निहित है उस ख़ास भावना के ऊपर विश्लेषण करने से दूर हटकर अन्य उन सभी बातों पर विश्लेषण कर दिया जाता हैं जिसका की कोई ज्यादा महत्व नहीं होता है और उसकी एक रचना या उसकी एक कला को आधार मान कर उस रचाकर या कलाकार की एक छवि बनाकर कलाकार के व्यक्तित्व का ही मूल्यांकन कर दिया जाता है, साहित्यकार के व्यक्तित्व को ही आलोचना के कटघरे में डाल दिया जाता है और उसकी कला अपनी जगह गौण हो जाती है कहीं छुप जाती है, रचनाकार और कलाकार को कई विशेषणों से अलंकृत कर दिया जाता हैं उसे प्रगतिशील कहते हैं या अंतर्मुखी यथार्थवादी समाजवादी आंचलिक इत्यादि इत्यादि कहकर संबोधित करने लगते हैं और उसकी रचना या कला कहीं दूर निरपेक्ष में चली जाती है।
सही तो यह होता है कि किसी कला को या रचना को रचनाकार के व्यक्तित्व से अलग हटाकर उस रचना को या उस कला को एक प्रस्तुत इकाई समझकर उसकी आलोचना करना चाहिए। उस कला में या उस रचना में उस समय की या किसी भी काल और समय की प्रचलित धारणा जो भी उल्लेखित किया गया है उसके ऊपर बात करना चाहिए उसमें अगर किसी भावनाओं को व्यक्त करने में अगर कोई कमी आ रही है, कमियों को बताना चाहिए। आलोचकों को कलाकार या साहित्यकार के जीवन तथा व्यक्तित्व आदि से रचनाओं का आकलन नहीं करना चाहिए रचना के मूल संवेदना इससे धुँधली पड़ जाती है करना हीं हैं तो रचनाकार या कलाकार के जीवन की अलग से आलोचना करना चाहिए, लेकिन इस बात से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता है कि रचनाकार या कलाकार को जानना उसके व्यक्तित्व को जानना भी बहुत जरूरी है तभी हम रचना के या कला के वैचारिक परिदृश्य को समझ पाएंगे तभी हम उस में छुपी सारी संभावनाओं को सामने ला सकेंगे उस रचना के वैचारिक आधार को जानने के लिए बहुत जरूरी है कि हम जिस समय कि वह रचना है उस समय के विचार दर्शन आदि को समझने की कोशिश करें तथा रचैयता को भी जानने की कोशिश करें।