किसी शहर का नाम सुनते ही निगाहों के सामने एक नक़्श उभरता है। ऐसा होगा, वैसा होगा, कैसा होगा? पल भर को हम उसमें उलझते जरूर हैं। हक़ीकत में रूबरू होने पर ये नक़्श बनता-बिगड़ता रहता है। मिर्जापुर का नाम पहली बार सुना तो लगा कुछ शाही ठाठ-बाट वाली जगह होगी। सोच ‘मिर्ज़ा’ शब्द के इर्दगिर्द सिमट आयी थी। रूबरू होने पर कुछ जंचा तो कहीं रूखा सा लगा। इस बात को वक़्त गुजरा। पुरानी याद है। सालभर के भीतर 1989 में मिर्जापुर के बाजू में एक सहोदर उग आया, सोनभद्र। हवाला गिरिजन के विकास का था। बिजली घरों के सरमाये में गुजरने वाला हमारा बचपन सोनभद्र के हिस्से आया। मिर्जापुर से उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े जिले का ओहदा छिन गया।
दौड़ में दूसरा नम्बर भी सोनभद्र ने हासिल किया। उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से रंग-रूप-सुगंध में एक दूसरे को जबर टक्कर देते हैं। बहुत अधिक मूलभूत अंतर नहीं है इनमें। लगाव और दुराव क्षेत्रीय आग्रह का मुद्दा होता है। वह तो खैर जबरदस्त है हिंदुस्तान की मिट्टी में। बाकी तो बस माया का फेर है। बहरहाल सामान-असबाब के साथ हमने जो पाँव मिर्जापुर में पसारे थे बिना हिले-डुले उनका पता अनपरा, सोनभद्र हो गया। हमारी प्रशासनिक इकाई का क्षेत्रीय विस्तार तो बढ़ गया पर सांस्कृतिक संदर्भ कुछ सिकुड़ गए।
जितनी पुरानी मिर्जापुर की याद है उतनी ही कजली शब्द की भी। इस याद में ज्यादा जगह तो झूले ने घेर रखी है। बाकी में हँसती-खिलखिलाती, रूठती-मानती स्त्रियां हैं। कजली नामकरण से जुड़ा किस्सा भी उसी वक़्त का है। महज किस्सा है, मिथक नहीं।
‘कंतित के राजा की एक बेटी थी, कजली नाम की। वह अपने पति से बेहद प्यार करती थी। किसी वजह से वह उनसे अलग कर दी गयी थी। विरह में पति की याद में वह कुछ गीत गुनगुनाती रहती थी। ये मीठे से गीत कुछ बेचैन कुछ उदास होते थे। प्यार के ये गीत कजली के नाम से लोगों के बीच में पहुँचे।’
मिर्जापुर के लोग इन गीतों को मौखिक रूप से कजली नाम से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करते रहे। इसी परंपरा में रचे कुछ नए गीत भी कजली में क्रमशः शामिल होते गए और धीमे-धीमे शास्त्रीय संगीत परम्परा का अभिन्न हिस्सा बन गए। कजली की याद में आज भी मिर्जापुर कजली महोत्सव मनाता है।
वस्तुतः कजरी पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध लोकगीत है जो सावन के महीने में रंग जमाता है। गीतों में श्रृंगार रस प्रधान होता है। गीतों के संबोधन, बहस, छेड़छाड़ प्रियतम के साथ तो होते ही हैं सखी-सहेली, भाभी-ननद भी मान-मनुहार, नोकझोंक का हिस्सा होती हैं। श्रृंगारिक प्रेम के प्रतीक राधाकृष्ण को भी हम इनमें उपस्थित पाते हैं।
ये रिश्तों की खनक के गीत है। सीधे साफ और सपाट। विरह के इन गीतों का शिकायती लहजा और उलाहना बेहद मोहक होता है। इनके मंचीय गायन में संगीत के बनारस घराने की हिस्सेदारी और खासा दखल है। घराने के कलाकारों ने अपने खूबसूरत अंदाज में कजरी गाकर उसे मंच पर स्थापित कर दिया है। रसूलन बाई, गिरजा देवी, छन्नूलाल, शोभा गुर्टू, कौशिकी चक्रवर्ती ढेर सारे नाम हैं।
यूँ तो हिंदुस्तान के शास्त्रीय गायन की सारी शैलियां अनमोल हैं, कजरी का एक खास पहलू दंगल है। इसे शास्त्रार्थ जैसी प्रतियोगी परम्परा मान सकते हैं या नहीं, कह नहीं सकते। लोक संगीत की किसी अन्य विधा में दंगल होता है या नहीं, हमें नहीं मालूम, कजरी में है। विजेता पहलवान गुरु अखाड़े सब मौजूद हैं यहाँ। बस रस का फेर है। वीर रस के बजाय यहाँ श्रृंगार रस की बाजी होती है।
दंगल से पहले तक गायी जाने वाली कजरी को लेकर गोपनीयता बरती जाती है। सिर्फ गायक और गुरु ही उससे वाकिफ़ होते हैं। सावन के सुख सुंदरता प्रेम और उल्लास के दरमियान होने वाला ये दंगल अपने आप में ख़ास होता है। कुछ कजरी अखाड़ों के नाम मिलते हैं। इनमें शिव राम, राम मूरत, जहांगीर, भैरो, छविराम, बफत, बैरागी, अक्खड़, इमामन के जिक्र अक्सर मिलते हैं।
कजरी से जुड़ा एक दूसरा किस्सा भी है जो विन्ध्य क्षेत्र की आराध्या विंध्यवासिनी देवी से जुड़ता है। कहते हैं कि देवासुर संग्राम में राक्षसों ने देवताओं को पराजित कर उन पर अपना आधिपत्य जमा लिया और उन्हें तरह तरह से प्रताड़ित करने लगे। त्रस्त होकर देवतागण आदिशक्ति की शरण में पहुंचे और अपना कष्ट बताया। सुनकर माँ जगदम्बा बहुत क्रोधित हो गई। क्रोध के परिणामस्वरूप उनका मुखमंडल एवं सारा शरीर काला पड़ गया। देवी का यह स्वरूप कज्जला देवी कहलाया। विंध्यवासिनी देवी के इसी रूप की याद में कजली उत्सव मनाया जाता है।
एक दफा सन 2006-07 में महाविद्यालय में सांस्कृतिक समिति के उत्तरदायित्व के तहत कजरी पर नृत्य की तैयारी चल रही थी। सोमा घोष की आवाज में ‘पिया मेंहदी’ पर काम चल रहा था। कुछ विद्यार्थियों को मोती झील को लेकर उत्सुकता हो गयी। बड़ा आमफ़हम सा नाम है। पर कजरी में कहाँ की नुमाइंदगी कर रहा है, सवाल ये था। उस वक़्त तो कुछ पता नहीं चला।
बाद में जानकारी हुई कि दशकों पहले बनारस के महमूर गंज मुहल्ले को बहरी अलंग कहते थे। वहाँ राजा मोतीचन्द की कोठी थी। पीछे की झील मोतीझील के नाम से जानी जाती। उस जगह के चारों ओर मेंहदी की झाड़ियाँ थीं। उसी जगह को लेकर कजरी बनी। कजरी तो प्रसिद्ध हुई ही मोती झील भी लोकमानस में दर्ज हो गयी। कजरी के बोल कुछ यूँ हैं-
सैंया मेंहदी लिया द मोती झील से
जाके साइकील से ना..
हमके मेंहदी लिया द
छोटी ननदी से पिसा द
हमरा हाथ पर लगा द पतली कील से
जाके साइकील से ना..
पकड़ लेइ जो बागवान
होई फौरन चलान
हम तोहके छोड़ा लेब अपील से
जा के साइकील से ना..
एक और बेहद लोकप्रिय कजरी है, ‘मिर्जापुर कईला गुलजार’
इसे भोजपुरी की एक सशक्त कवयित्री सुंदर वेश्या ने लिखा था। अंग्रेजों के मुखबिर मिर्जापुर के मिसिर नामक एक गुंडे ने कम उम्र में ही सुंदर का अपहरण कर लिया था। तमाम यातनाओं के बीच भी सुंदर ने अपनी संवेदना और रचनाधर्मिता को जिंदा रखा।
बाद में स्वाधीनता संग्राम के एक योद्धा दाताराम नागर के साथ हुए झगड़े में मिसिर मारा गया। नागर ने सुंदर को मुक्ति दिलाकर उसे अपनी बहन बना लिया। जंग-ए-आज़ादी में भूमिका के लिए दाताराम नागर को कालापानी की सजा हुई। सुंदर ने भाई की याद में कई मार्मिक कविताएं लिखीं उनमें से एक है, ‘अरे रामा नागर भैया जाला काला पानी रे हरि’।
ऐसे ही तमाम किस्से हैं, कहानियां हैं जो लोक में विचारण कर रहे हैं। कुछ आपके पास भी होंगे उन्हें दर्ज करिये। जनश्रुति अनुश्रुति में रूपान्तरित होगी तो लोक का इतिहास समृद्ध होगा और उसे हस्तांतरित करने में भी आसानी होगी। बात खत्म करते हैं लोक की एक कहावत से जो मिर्जापुरी कजरी की लोकप्रियता को उद्घाटित करती है-
लीला राम नगर की भारी, कजली मिर्जापुर सरनाम।।
प्रोफेसर नीलिमा पाण्डेय
लखनऊ, उत्तर प्रदेश