भारतीय संविधान दुनिया के उन अद्वितीय संविधानों में से एक है जो समाज के प्रत्येक वर्ग का ध्यान रखता है। संविधान के निर्माताओं को मानवीय गरिमा और योग्यता के महत्व के बारे में पता था और इसलिए उन्होंने भारत के संविधान की प्रस्तावना में मानवीय गरिमा शब्द को शामिल किया।
संविधान की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता मौलिक अधिकार है। संविधान के निर्माताओं ने इसे यूएसए से उधार लिया और संविधान के भाग III में एक अलग अध्याय के रूप में जोड़ा। संविधान ने विभिन्न अधिकार प्रदान किए जैसे कि समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शिक्षा का अधिकार, संवैधानिक उपचार का अधिकार, जो कि सबसे पवित्र, अक्षम्य, प्राकृतिक और निहित अधिकारों के बारे में बात करता है।
मौलिक अधिकारों की गारंटी संविधान द्वारा सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के दी जाती है। मौलिक अधिकारों का प्रावधान मानवीय गरिमा को सुरक्षित और संरक्षित करता है। न्यायपालिका ने बहुत सारे मामलों में मौलिक अधिकार के रूप में गरिमा पर जोर दिया है। नाज़ फाउंडेशन तथा एनसीटी की सरकार और अन्य लोगों के मामले में कोर्ट ने कहा कि, ‘मानवीय गरिमा के संवैधानिक संरक्षण के लिए हमें अपने समाज के सदस्यों के रूप में सभी व्यक्तियों के मूल्यों को स्वीकार करना होगा।’
भारत के सभी नागरिक बिना किसी व्यवधान के शांतिपूर्ण, गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करेंगे।
न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा ने परमानंद कटारा बनाम भारत संघ में सही कहा है कि ‘जीवन का संरक्षण सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि किसी का जीवन खो जाता है, तो पुनरुत्थान की स्थिति बहाल नहीं की जा सकती क्योंकि पुनरुत्थान मनुष्य की क्षमता से परे है।’
जीवन का अधिकार मनुष्य का अविभाज्य मूल अधिकार है। यह मानवीय अधिकार , मौलिक, अविभाज्य, पारलौकिक और सबसे महत्वपूर्ण है। मेनका गांधी के केस के बाद से सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की अनुच्छेद 21 की वृहत व्याख्या की, जिसने जीवन के अधिकार के क्षितिज के विस्तार के एक नए युग की शुरुआत की है।
परंपरागत रूप से जीवन के अधिकार को लोगों का प्राकृतिक अधिकार कहा जाता था। जीवन का अधिकार भारत के नागरिक और भारत के एलियंस के महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों में से एक है। यह भारत के संविधान द्वारा संरक्षित है।
इसलिए जीवन के अधिकार में मानव अधिकार के साथ जीने का अधिकार, कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार, जानने का अधिकार या सूचना का अधिकार, कैदियों का अधिकार, अवैध हिरासत के खिलाफ अधिकार, कानूनी सहायता का अधिकार, शीघ्र सुनवाई का अधिकार, मुआवजे का अधिकार, भयानक बीमारियों के खुलासे का अधिकार, निजता का अधिकार, सम्मान के साथ मरने का अधिकार, जीवन साथी चुनने का अधिकार और अन्य सब शामिल होना चाहिए।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मानव की सुरक्षा के लिए एक मुख्य तत्व के रूप में मानव गरिमा पर ध्यान केंद्रित किया। मानव गरिमा के वैचारिक आयामों की स्थापना 1948 में की मूलभूत अवधारणा के रूप में की गई थी। यूडीएचआर की प्रस्तावना कहती है कि ‘निहित सम्मान की मान्यता और मानव परिवार के सभी सदस्यों के समान और अविच्छेद्य अधिकारों की विश्व में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव है।’
ह्यूमन राइट्स 1948 के यूनिवर्सल डिक्लेरेशन के आर्टिकल 1 की शुरुआत में उल्लिखित मानव गरिमा, दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा दुनिया के विभिन्न देशों के विभिन्न संवैधानिक कानूनों में मानवीय गरिमा के साथ जीवन के अधिकार की रक्षा और विकास के लिए प्रारंभिक कार्य प्रदान करती है।
हर व्यक्ति को बिना भेदभाव के गरिमापूर्ण जीवन जीने का पूर्ण अधिकार है। वे राज्य के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों से भी समान सम्मान का दावा करने के हकदार हैं। यह प्रत्येक राज्य के प्राथमिक कर्तव्यों में से एक है कि नागरिकों की गरिमापूर्ण जीवन को बेहतर बनाने के लिए मानव गरिमा के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाए और कल्याणकारी योजनाओं को लागू किया जाए।
जीवन के अधिकार के तहत कई और अधिकार हैं। इसमें सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या के महत्वपूर्ण बिंदु शामिल हैं। उनसे यह पता चलता है कि अनुच्छेद 21 के दायरे और दायरे को बड़ा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई व्याख्या से मानव अधिकार का क्षेत्र बहुत बड़ा हुआ है। यह उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है कि यह न्यायशास्त्र अब मानवीय गरिमा का अभिन्न अंग है।
यह सब सुप्रीम कोर्ट के उदारवादी रवैये और दृष्टिकोण के कारण हुआ। अदालत ने ओलीगा टेलिस बनाम बॉम्बे मुनीपाल कोरोपोरेशन और अन्य और कॉर्ली मुलिन बनाम दिल्ली के प्रशासक और केंद्र शासित प्रदेश के मामले में इस तरह से व्याख्या की है कि जीवन के अधिकार में एक गरिमापूर्ण जीवन स्वयं शामिल है।
वर्तमान में मानवीय गरिमा की कोई सटीक परिभाषा नहीं है। मानवीय गरिमा शब्द ने व्यक्ति के नागरिक, राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा की बात सच्ची जाती है। मानव गरिमा का अर्थ सम्मान और समान स्थिति के योग्य अवसर है और यह व्यक्ति के जाति, पंथ, लिंग, रंग, स्थिति के बावजूद मानव जीवन के साथ मानसिक रूप से जुड़ा हुआ है। मानवीय गरिमा परिवार, जाति, समुदाय और समाज के साथ जुड़ी हुई है।
प्रत्येक समाज में गरिमा के साथ अपने स्वयं के मानदंड हैं, वे प्रथाओं के अनुसार अपनी गरिमा, सम्मान और स्थिति बनाए रखते हैं। एक मानव होने के नाते इसे लिंग की परवाह किए बिना गरिमा के बराबर व्यवहार करना चाहिए। मानव गरिमा सरकार की विश्वव्यापी मानवाधिकार प्रणाली की मूलभूत अवधारणा है। मानव गरिमा का महत्व संयुक्त राष्ट्र के चार्टर, मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और भारत के संविधान में भी निर्धारित किया गया है, जिसमें व्यक्ति की गरिमा का उल्लेख प्रस्तावना में सबसे महत्वपूर्ण मूल्य के रूप में किया गया है।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे एस वर्मा ने पूरी तरह से मानवीय सम्मान के साथ जीवन के अधिकार के बारे में विचार व्यक्त किया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा है कि, अनुच्छेद 21 को जीवन और स्वतंत्रता के संरक्षण के रूप में जाना जाता है। जीवन के अधिकार का मतलब यह नहीं है कि यह केवल जीवन का अस्तित्व है, बल्कि यह एक गरिमापूर्ण गुणवत्ता वाला जीवन होना चाहिए।
खराह सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में की शीर्ष अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति ‘जीवन’ केवल शारीरिक संयम या कारावास तक सीमित नहीं था, बल्कि केवल पशु अस्तित्व से कुछ अधिक है । संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति को किसी भी प्रतिबंध या अतिक्रमण से मुक्त होने का अधिकार है।’
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि, अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार का अर्थ इंसान की जरूरतों को शामिल करने के लिए सिर्फ एक जानवर के जीवन से परे होना चाहिए। पी रथिनम बनाम भारत संघ के मामले में जीवन शब्द को ‘मानव गरिमा के साथ जीने के अधिकार’ के रूप में परिभाषित किया गया है। यह मानवीय सभ्यता को और सुदृढ़ बनाता है और जीवन की व्यापक अवधारणा मतलब परंपरा, संस्कृति और विरासत को सही दिशा प्रदान करता है।
सलिल सरोज
समिति अधिकारी
लोक सभा सचिवालय
नई दिल्ली