Wednesday, May 1, 2024
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हमारे हनुमान जी विवेचना भाग पंद्रह: संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै

पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा॥

अर्थ
जो भी मन क्रम और वचन से हनुमान जी का ध्यान करता है, वो संकटों से बच जाता है। जो राम स्वयं भगवान हैं, उनके भी समस्त कार्यों का संपादन आपके ही द्वारा किया गया।

भावार्थ
श्री हनुमान जी से संकट के समय में मदद लेने के लिए आवश्यक है कि आपका मन निर्मल हो। आप जो मन में सोचते हों, वही वाणी से बोलते हैं और वही कर्म करते हैं, तब आप निश्चल कहे जाओगे और संकट के समय हनुमान जी आपकी मदद करेंगे।

श्री रामचंद्र वन में हैं, परंतु अयोध्या के राजा भी हैं। वन के सभी लोग उनको राजा ही मानते हैं इसलिए वे तपस्वी राजा हैं। वे एक ऐसे राजा है जो सभी के ऊपर हैं। तपस्वी राजा के समस्त कार्य जैसे सीता मां का पता करना, लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर संजीवनी बूटी को लाना, अहिरावण द्वारा अपहरण किए जाने पर सबको मुक्त कराकर लाना आदि कार्य आपने (हनुमान जी ने) ही संपन्न किये हैं।

संदेश
स्थिति कैसी भी हो मन के भाव, कर्म का साथ और वचन को टूटने न दें। यदि आप ऐसा करते हैं तो हर काम में आपको सफलता जरूर मिलेगी और श्री हनुमान जी का आशीर्वाद भी मिलेगा।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ-

1- संकट तें हनुमान छुड़ावै। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥

इस चौपाई का बार-बार पाठ करने से जातक सभी प्रकार के संकटों से मुक्त रहता है।

2- सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा॥

राजकीय कार्यों में सफलता के लिए इस चौपाई का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना
सबसे पहले हम संकट शब्द पर विचार करते हैं, शब्दकोश के अनुसार संकट शब्द का अर्थ होता है विपत्ति या खतरा। विपत्ति आपके दुर्भाग्य के कारण हो सकती है। सामूहिक विपत्ति प्रकृति द्वारा दी जा सकती है। खतरा एक मानसिक दशा है, क्योंकि आपके मस्तिष्क द्वारा महसूस किया जाता है। जैसे कि आप रात में सुनसान रास्ते पर जाने पर चोरों या डकैतों का खतरा महसूस कर सकते हैं।

संकट का एक अर्थ होता है मुश्किल या कठिन समय। संकट शब्द का तात्पर्य है मुसीबत। संकट एक कष्टकारी स्थिति है, जिसकी आशा नहीं की जाती और जिसका निदान पीड़ा (शारीरिक, मानसिक, आर्थिक व सामाजिक) से मुक्ती के लिये अनिवार्य है। संकट का एक उदाहरण है यूक्रेन के लोग इस समय भारी संकट में है। दूसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश मन क्रम वचन है।

रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा हुआ है-

मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥

अर्थ- जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे लोगों को योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता अपने आप प्राप्त हो जाती है ।

मन क्रम वचन का दूसरा उदाहरण भी रामचरितमानस से ही है-
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥

भावार्थ- मन, वचन और कर्म से और कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि मन क्रम वचन का अर्थ पूरी तन्मयता और एकाग्रता से कोई कार्य करना है। किसी कार्य को करते समय बाकी पूरे संसार को भूल जाना ही मन क्रम वचन से कार्य करना कहलाता है। इस प्रकार इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि आप सभी विपत्तियों से और सभी खतरों से बच सकते हो अगर आप हनुमान जी में अपना मन पूरी एकाग्रता के साथ लगाएं। उनका जाप करते समय आपको बाकी सब कुछ भूल जाना चाहिए। आपका ध्यान सिर्फ और सिर्फ हनुमान जी पर ही हो।

ईश्वर की भक्ति 2 तरह से की जाती है। एक अंतर्भक्ति और दूसरा बहिर्भक्ति। चित्त एकाग्र कर हनुमान जी की मूर्ति के सामने बैठकर या बगैर मूर्ति के बैठ कर जब हम हनुमान जी को याद करते हैं तो अंतर्भक्ति कहलाती है। इस समय आप जो जाप करते हैं, उसमें आवाज आपके अंतर्मन की होती है। बहिर्भक्ति का अर्थ यह है कि आप मूर्ति के सामने बैठे हुए हैं। शांत दिख रहे हैं और यह भी बाहर से समझ में आ रहा है कि आपका ध्यान इस समय जप में ही है।

इस चौपाई में अगला महत्वपूर्ण शब्द है “ध्यान”। ध्यान शब्द का अर्थ होता है एक ऐसी क्रिया जिसमें मन कर्म और वाणी तीनों ही एकाग्र होकर किसी बिंदु विशेष पर केंद्रित हो जाए। ध्यान दो प्रकार का होता है पहला योगिक ध्यान और दूसरा धार्मिक ध्यान। योगिक ध्यान का उदाहरण है योगियों द्वारा या योग क्रियाओं के समय किया जाने वाला ध्यान। इस प्रकार के ध्यान को महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में विशेष रूप से बताया गया है। इसमें चित्त को एकाग्र करके किसी वस्तु विशेष पर केंद्रित किया जाता है। पुराने समय में विशेष रुप से ऋषि गण भगवान का ध्यान करते थे। ध्यान की अवस्था में ध्यान मग्न व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण को और स्वयं को भी भूल जाता है। ध्यान करने से आत्मिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है। अगर कोई व्यक्ति ध्यान मग्न अवस्था में है तो उसे आसपास के वातावरण में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन का असर महसूस नहीं होता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अगर आप पूर्णतया ध्यान मग्न होकर हनुमान जी को बुलाते हैं तो आपके हर संकट को महावीर हनुमान जी दूर करेंगे। यह बात केवल हनुमान जी के लिए नहीं है। यह बात समस्त महान उर्जा स्रोतो के लिए है जैसे कि अगर आप देवी जी की भक्त हैं और देवी जी को ध्यान मग्न होकर बुलाएंगे तो वह अवश्य आकर आपके संकटों को दूर करेंगी।

धार्मिक ध्यान का संदर्भ विशेष रुप से बौद्ध धर्म से है। बौद्ध धर्म गुरुओं द्वारा इसे एक विशेष तकनीक द्वारा विकसित किया गया था। बौद्ध मठ के नियम यह कहते हैं इंद्रियों को वश में किया जाए और मस्तिष्क के अंदर घुस कर आंतरिक ध्यान लगाया जाए। हम ऐसा भगवान चाहते हैं जो कि देखता और सुनता हो। जो हमारी परवाह करें। बौद्ध धर्म में भी बोधिसत्व का सिद्धांत कार्य करता है। बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध स्वयं को और दूसरों को आंखें बंद करके मस्तिष्क को सत्य पर केंद्रित करके ध्यान करना सिखाते हैं। जबकि बोधिसत्व स्वयं की आंख और कान खुले रखते हैं और लोगों को मदद देने के लिए अपने हाथों को आगे बढ़ाते हैं। इस कारण जनमानस शिक्षक बुद्ध के बजाय रक्षक बोधिसत्व पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है।

हिंदू धर्म में हनुमान एक ऐसा स्वरूप बन गए हैं, जिनके द्वारा एक परेशान भक्त उम्मीद और ताकत को वापस पा सकता है। हनुमान जी की आराधना करना उनका ध्यान लगाना भक्तों के अंदर शक्ति प्रदान करता है। विपत्ति और संकटों से लड़ने की शक्ति यहीं पर प्रारंभ होती है। ध्यान लगाकर हनुमान जी को बुलाने से हनुमान जी द्वारा सभी संकटों का हरण कर लिया जाता है।

अगली पंक्ति है-

सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा॥

इसमें महत्वपूर्ण शब्द है श्रीराम, तपस्वी, राजा, तिन के काज और साजा। सबसे पहले हम तपस्वी शब्द पर ध्यान देते हैं। तपस्या करने वाले को तपस्वी कहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि तपस्या क्या है। तपस् या तप का मूल अर्थ है प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है। किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया। किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा। वर्तमान में हम तपस्या के इसी स्वरूप को मानते हैं। वर्तमान में तपस्या का यही स्वरूप है। साधारण तपस्वी जमीन पर सोता है, पीले रंग के कपड़े पहनता हैं, कम खाना खाता है, सर पर जटा जूट धारण करता है, नाखून नहीं काटता है। साधारण तपस्वी को वेद पाठी और दयालु भी होना चाहिए।

उग्र तपस्वी को ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि, बरसात की रात में आसमान के नीचे रहना, जाड़े में जल निवास, तीन समय स्नान, कंदमूल खाना भिक्षाटन, बस्ती से दूर निवास तथा समस्त प्रकार के सुखों को त्याग करना पड़ता है। तीसरे हठयोगी होते हैं। जो कि उग्र तपस्वी की सभी क्रियाओं को करते हैं। उसके अलावा कोई एक विशेष मुद्रा में जैसे हाथ को उठाए रखना या एक पैर पर खड़े रहना आदि क्रिया भी करते हैं।

मनुस्मृति कहता है कि आपका कर्म ही आपकी तपस्या है। जैसे कि अगर आपका कार्य पढ़ना है तो पढ़ना ही आपके लिए तपस्या है। अगर आप सैनिक हैं तो शत्रुओं से देश की रक्षा करना आपके लिए तपस्या है।

भगवत गीता के अनुसार- श्रीमद् भागवत गीता में तपस्या के बारे में बहुत अच्छी विवेचना उसके 17 अध्याय में श्लोक क्रमांक 14 से 22 तक किया गया है। इसमें उन्होंने तप के कई प्रकार बताए हैं। श्रीमद् भगवत गीता के अनुसार निष्काम कर्म ही सबसे बड़ा तप है।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥17.14॥

भावार्थ- देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥17.17॥

भावार्थ- फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं।

श्री रामचंद्र जी वन में हैं। एक स्थान पर दूसरे स्थान पर भ्रमण कर रहे हैं। सन्यासी का वस्त्र पहने हुए हैं तथा अपने पिताजी द्वारा दिए गए आदेश का पालन कर रहे हैं। संतो की रक्षा कर रहे हैं तथा उन्हें आवश्यक सुविधाएं भी प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार श्री रामचंद्र जी वन में तपस्वी का सभी कार्य कर रहे हैं। श्री रामचंद्र राजतिलक के तत्काल पहले राज्य छोड़ कर के वन को चल दिए, परंतु उनके बाद भरत जी ने अपना राजतिलक नहीं करवाया। श्री भरत जी ने भी पूर्ण तपस्वी का आचरण किया। वल्कल वस्त्र पहने, जटा जूट बढ़ाया आदि आदि। श्री भरत जी ने रामचंद्र जी के खड़ाऊ को रख कर के अयोध्या के शासन को संचालित किया। इस प्रकार अगर तकनीकी रूप से कहा जाए तो अयोध्या के राजा उस समय भी श्री रामचंद्र जी ही थे। अतः तुलसीदास जी ने उनको तपस्वी राजा कहा है।

रामचंद्र जी भगवान विष्णु के अवतार थे। भगवान विष्णु का स्थान देव त्रयी मैं सबसे ऊपर है। इसलिए श्री रामचंद्र जी सब के ऊपर हैं। अतः यह कहना कि सब पर राम तपस्वी राजा पूर्णतया उचित है। जो सबसे ऊपर है, सबसे शक्तिमान है और सबसे ऊर्जावान है उन श्री राम जी का कार्य हनुमान जी ने किया है।

अगर हम रामायण को पढ़ें तो पाते हैं कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के अधिकांश कार्यों को संपन्न किया है। जैसे सीता माता का पता लगाना, सुषेण वैद्य को लाना, जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लग गई तो श्री लक्ष्मण जी को मेघनाथ से बचाकर शिविर में लाना, संजीवनी बूटी लाना, गरुड़ जी को लाना, अहिरावण का वध करना और अहिरावण के यहां से श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को बचाकर लाना आदि आदि।

इस प्रकार आसानी से कहा जा सकता है कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया है। श्री रामचंद्र जी ने जो भी आदेश दिए हैं उनको श्री हनुमान जी ने पूर्ण किया है। इस प्रकार हनुमान जी ने तपस्वी राजा श्री रामचंद्र जी के समस्त कार्यों को संपन्न करके श्री रामचंद्र जी को प्रसन्न किया।

जय श्री राम
जय हनुमान

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