आज के साहित्य को पढ़ने में बौद्धिक संतुष्टि नहीं मिलती- कथाकार-कवयित्री विनीता राहुरीकर से राजीव कुमार झा की बातचीत

प्रश्न- लेखन की शुरुवात कब से हुई?
विनीता राहुरीकर- तारीख तो याद नहीं कि कब पहली रचना लिखी लेकिन इतना याद है कि तब माँ-पिताजी के साथ विदेश में थी। उम्र नौ साल होगी। तब चित्र बनाने का शौक चरम पर था। तो कॉपी में चित्र बनाया की एक जंगल है, दो लड़कियाँ हैं, एक शेर आता है और लड़कियाँ “अरे भागो शेर आ गया” कह रही हैं। वो कागज़ तो खो गया लेकिन स्मृति में अभी तक सुरक्षित है।

प्रश्न- यह तो बचपन की मासूमियत की बात हुई। लेखन पर ध्यान कब केंद्रित हुआ अर्थात कब समझ आने लगा कि मन में क्या चल रहा है और उसे अभिव्यक्त करना है।
विनीता राहुरीकर- तब बारह साल की थी जब कविताएँ और बच्चों की कहानियाँ लिखना शुरू किया। एक बाल उपन्यास “काँच की चिड़िया” भी उसी उम्र में लिखा। तब एक जुनून की तरह लिखना मन पर हावी हो चुका था। मन के भावों को शब्दों में बाँधने की जद्दोजहद चल रही थी। लेकिन कही प्रकाशित आदि करवाने की कोई समझ नहीं थी। लिखना बस स्वान्त सुखाय या कहिये बस अपने तक ही सीमित था।

प्रश्न- तो कब खयाल आया कि लेखन को विस्तार देना है।
विनीता राहुरीकर- मन में उठते कुछ भावों को यूँ ही एक कॉपी में कहानी के रूप में पिरोकर रखा था। एक दिन भैया ने कहानी पढ़ी और कहा कि इतना अच्छा लिखती है इसे किसी अच्छी पत्रिका में भेज छपने के लिए। पता नहीं मन में क्या आया कि कहानी टाइप करवाकर भेज भी दी और लौटती डाक से सम्पादक का पत्र आया कि तुरंत अपना फोटो भेजिए कहानी स्वीकृत हो गई है। बस तभी से लिखने और प्रकाशित होने का सिलसिला शुरू हो गया तो लेखन के प्रति गम्भीरता और प्रतिबद्धता भी धीरे-धीरे बढ़ने लगी।

प्रश्न- कितने वर्ष हो गए लिखते हुए और अब तक कितनी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
विनीता राहुरीकर- सन 2010 मार्च में पहली कहानी प्रकाशित हुई थी। इस साल नौ साल पूरे हुए लेखन के। अब तक 250-300 रचनाओं का प्रकाशन विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हो चुका है।

प्रश्न- किन-किन विधाओं में लेखन करती हैं और आपकी पसंदीदा विधा क्या है लेखन की।
विनीता राहुरीकर- कहानी, कविता, लघुकथा, उपन्यास, समीक्षा सभी विधाओं में लिखती हूँ लेकिन जिस विधा में लिखकर लेखन की संतुष्टि सबसे अधिक मिलती है वो है कहानी। मुझे कहानियाँ लिखना सबसे अधिक पसंद है। अब तक 75 से अधिक कहानियाँ मेरी प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें से कई कहानियों को पुरस्कार भी मिला है।

प्रश्न-कोई पुस्तक भी प्रकाशित हुई हैं।
विनीता राहुरीकर- अब तक 10 पुस्तकें प्रकाशित हो गई हैं। जिनमें एक कहानी संग्रह, दो बाल कहानी संग्रह, दो कविता संग्रह, दो उपन्यास जो हिंदी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हैं। दो संग्रह अभी जल्दी ही आने वाले हैं।

प्रश्न- उपन्यास की पृष्ठभूमि क्या है। किस विषय पर लिखे हैं।
विनीता राहुरीकर- पहला उपन्यास भारतीय सेना के कमांडो के जीवन पर आधारित है। कश्मीर में तैनात हमारे जवानों को किस तरह आतंकवादियों से संघर्ष करना पड़ता है। वे किस तरह देश की सुरक्षा के लिए अपनी जान की भी बाजी लगाने से क्षण भर को भी हिचकते नहीं है। किस बहादुरी और जीवट से खतरों का सामना करके घुसपैठ को रोकते हैं। बहुत रोमांचकारी और रौंगटे खड़े कर देने वाली कहानी है उनके जीवन की।

प्रश्न- इस विषय पर उपन्यास लिखने का खयाल कैसे आया।
विनीता राहुरीकर- बचपन से ही भारतीय सेना के जवानों के प्रति एक स्वाभाविक आदर और सम्मान तो मन में था ही। दो साल तक कहानियाँ लिखने के बाद मन हुआ कि मैं भी उपन्यास लिखूं क्योंकि पढ़ने में मुझे उपन्यास ही अत्यधिक प्रिय हैं। कई बड़े लेखकों के उपन्यास पढ़ें हैं। लेकिन मैं साधारण सामाजिक या पारिवारिक विषयों से अलग हटकर कुछ लिखना चाहती थी तो इसी विषय पर काम करना शुरू किया। सेना के जवानों से मिली। उनकी कहानियाँ सुनी, कश्मीर गयी वो सभी जगहें देखी जिनके बारे में उपन्यास में लिखना था। सारी जानकारियां हासिल करने के बाद उपन्यास लिखा। और भाग्य से जिस दिन उपन्यास छपकर आया उसी दिन मैं लद्दाख के लिए रवाना हुई। तो लद्दाख की पेंगोंग झील पर सेना के जवानों के हाथों ही इसका विमोचन होना भी मेरे लिए अपने आप मे एक बड़ी उपलब्धि रही।
साहित्य जगत में भी इस उपन्यास की बहुत चर्चा हुई और बहुत पसंद किया गया इसे।

प्रश्न- और आपका दूसरा उपन्यास किस विषय पर है।
विनीता राहुरीकर- दूसरा उपन्यास “कर्म चक्र” अंग्रेजी में यू.एस.ए. से पेट्रीज पब्लिशिंग से प्रकाशित है और हिंदी में जल्द ही जयपुर से बोधि प्रकाशन से निकलने वाला है।
यह पाँच दोस्तों की बेहद दिलचस्प कहानी है। यह एक साइंस फिक्शन है। जिसमें पाँचों दोस्त अपने जीवन की समस्याओं के चलते ग्यारह सौ साल पहले के समय में जाते हैं और वहाँ पर उन्हें अपनी समस्याओं का समाधान मिलता है।

प्रश्न- यह तो बड़ा ही दिलचस्प होगा।
विनीता राहुरीकर- जी हाँ हिंदी में इस तरह का लेखन कम ही हुआ है। अंग्रेजी में इस उपन्यास को कई देशों के लोगों ने बहुत सराहा है। अंग्रेजी में यह विश्व के लगभग 160 देशों में उपलब्ध है। हिंदी में भी इसकी बहुत माँग हो रही है।

प्रश्न- अब तक लेखन के क्षेत्र में आपको किन-किन पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
विनीता राहुरीकर- राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 20 पुरस्कार और सम्मान मेरे लेखन को मिल चुके हैं जो कहानी, कविता, बाल साहित्य, लघुकथा के क्षेत्र में मिले हैं लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है मेरे पाठकों का प्यार। जब कहीं किसी रचना को पढ़कर मेरे पाठकों को खुशी मिलती है और वे मुझे फोन करके या सन्देश भेजकर बधाई देते हैं तो वो लम्हा मेरे लिए किसी भी पुरस्कार से बढ़कर है। मेरे पाठकों की संतुष्टि और खुशी ही मेरे लेखन का सम्बल है, प्रोत्साहन है। मैं आज जो भी हूँ बस अपने पाठकों के स्नेह और प्रोत्साहन के कारण ही हूँ।

प्रश्न- लेखन से जुड़ा जीवन का कोई यादगार लम्हा।
विनीता राहुरीकर- लेखन का हर लम्हा ही यूँ तो अपने आप मे यादगार होता है लेकिन फिर भी कुछ लम्हे हैं जो मन पर उम्र भर के लिए अपनी अमिट छाप छोड़ देते हैं। जैसे पहले ही कहानी संग्रह का विमोचन दो अत्यंत वरिष्ठ लेखिकाओं आदरणीया मालती जोशी जी तथा आदरणीया मेहरुन्निसा परवेज जी के हाथों होना।
आज भी जब भी आदरणीया मालती जोशी जी किसी पत्र या पत्रिका में मेरी कोई भी रचना पढ़ती है तो तुरंत फोन करके बधाई देती हैं और बहुत प्रोत्साहित करती हैं लिखने के लिए। उनका फोन मेरे लिए पद्मश्री प्राप्त करने जितना ही खुशी देने वाला होता है।

प्रश्न- आपके लेखन के प्रमुख भाव क्या होते हैं अर्थात आप अपने पाठकों को क्या देना चाहती हैं।
विनीता राहुरीकर- मैं हमेशा सकारात्मक लेखन ही करती हूँ। कभी रिश्तों के बीच तनाव अथवा गलतफहमी के बारे में भी लिखा तो उसका समाधान भी देती हूँ।
मैं चाहती हूँ कि पाठकों को साहित्य से कुछ अच्छा, सकारात्मक संदेश मिले। उनके जीवन में अगर कुछ समस्या है तो उन्हें उसका हल मिले। रचना पढ़कर पाठकों को संतुष्टि और खुशी मिलनी चाहिये। इसलिए मैं हर रचना का सुखद, सकारात्मक अंत करती हूँ। क्योकि दर्द तो सबके पास पहले से ही है, हमारा कर्तव्य है कि अपनी रचनाओं से उनका दर्द दूर कर मरहम लगाएं।

प्रश्न- एक व्यक्तिगत प्रश्न, लेखन आपके लिए क्या मायने रखता है।
विनीता राहुरीकर- लिखना मेरे लिए साँस लेने जितना ही जरूरी है। मैं खाना खाए बिना रह सकती हूँ लेकिन लिखे या पढ़े बिना नहीं। सफर पर जाते हुए भी मैं चाहे जो भी भूल जाऊँ लेकिन कॉपी, कलम और एक पुस्तक साथ लेना कभी नहीं भूलती।
लिखना मेरे लिए ईश्वर का आशीर्वाद भी है और ईश्वर की इच्छा भी। मैं यही मानती हूँ कि ये ईश्वर की इच्छा है कि मैं लिखूँ तो उनकी इच्छा पूरी करना मेरा कर्तव्य है और मैं आखरी साँस तक अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाऊंगी। माँ सरस्वती अपना आशीर्वाद हमेशा मुझपर बनाए रखे यही प्रार्थना है।

प्रश्न- किन लेखकों से आप प्रभावित हुई हैं। कौन से लेखकों को आप अपना आदर्श मानती हैं।
विनीता राहुरीकर- भारत की साहित्यिक धरोहर बहुत समृद्ध है। हमारे यहाँ का साहित्य विश्व का सर्वश्रेष्ठ साहित्य है। धर्म, दर्शन, इतिहास, पुराण ऐसा कौन सा विषय है जिस पर हमारे यहाँ लेखन नहीं हुआ। महाभारत, रामायण, गीता आज विश्व भर में पढ़ी और सराही जाती हैं। विपुल सम्पदा है साहित्य की हमारे देश में की एक नहीं कई जन्म लग जाएँगे तब भी हम पूरा नहीं पढ़ पाएँगे।
फिर भी जितना मैं पढ़ पायी हूँ बंगाली लेखकों में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय तथा आशापूर्णा देवी जी के लेखन से मैं बहुत प्रभावित हुई और लेखन की गहनता उन्ही से सीखी। हिंदी में मुझे अमृता प्रीतम जी का रूहानी लेखन बेहद प्रिय है और मैं उनको बार-बार पढ़ती रहती हूँ। उनके अलावा आदरणीया मालती जोशी जी का लेखन वास्तविक जीवन के करीब है। उनके लेखन की सरलता में जो गहनता है वो विरल ही मिलती है। उनके कहानी उपन्यास मुझे अत्यधिक प्रिय हैं। खास करके उनके महिला चरित्रों की चारित्रिक दृढ़ता और साहस प्रभावित करते हैं।

प्रश्न-आज का साहित्य लेखन रचना की इस कसौटी पर कितना खरा प्रतीत होता है?
विनीता राहुरीकर- डिजिटल माध्यम ने काफी कुछ आसान कर दिया है। अब रचनाओं के प्रकाशन की जद्दोजहद नहीं रही। इस कारण अचानक ही लेखक भी बहुत बढ़ गए हैं और साहित्यिक कृतियों में वो पहले सी गम्भीरता, चिंतन और गहराई नहीं रह गई। निन्यानवें प्रतिशत रचनाएँ उथली होती हैं। डिजिटल के साथ ही प्रिंट माध्यम भी काफी बढ़ गए हैं जो पेज भरने के लिए स्तरहीन सामग्री भी छाप देते हैं। आज के साहित्य में पढ़ने की बौद्धिक संतुष्टि नहीं मिलती जो पहले के लेखकों की कृतियों को पढ़ने से मिलती है। आज के लेखक संख्या बढ़ा रहे हैं लेकिन गुणवत्ता घटती जा रही है। इसीलिए आज के दौर से कोई कालजयी रचना निकल कर नहीं आ रही। साहित्यिक सूक्ष्म दृष्टि का अभाव है आज के लेखन में।

प्रश्न-आज का साहित्य लेखन रचना की इस कसौटी पर कितना खरा प्रतीत होता है?
विनीता राहुरीकर- डिजिटल माध्यम ने काफी कुछ आसान कर दिया है। अब रचनाओं के प्रकाशन की जद्दोजहद नहीं रही। इस कारण अचानक ही लेखक भी बहुत बढ़ गए हैं और साहित्यिक कृतियों में वो पहले सी गम्भीरता, चिंतन और गहराई नहीं रह गई। निन्यानवें प्रतिशत रचनाएँ उथली होती हैं। डिजिटल के साथ ही प्रिंट माध्यम भी काफी बढ़ गए हैं जो पेज भरने के लिए स्तरहीन सामग्री भी छाप देते हैं। आज के साहित्य में पढ़ने की बौद्धिक संतुष्टि नहीं मिलती जो पहले के लेखकों की कृतियों को पढ़ने से मिलती है। आज के लेखक संख्या बढ़ा रहे हैं लेकिन गुणवत्ता घटती जा रही है। इसीलिए आज के दौर से कोई कालजयी रचना निकल कर नहीं आ रही। साहित्यिक सूक्ष्म दृष्टि का अभाव है आज के लेखन में।

प्रश्न-यूरोप में काफी तादाद में रोजगार की तलाश में गये भारतीयों की जीवन स्थिति के बारे में बताएँ
विनीता राहुरीकर- एक तरफ जहां समस्त यूरोपीय देशों में भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रति लगाव बहुत तेज़ी से बढ़ता जा रहा है वहीं स्वयं भारतीय यूरोप और अमेरिका की नकली चकाचौंध से भृमित होकर उस ओर बढ़ रहे हैं नतीजा टूटते परिवार और एकाकी होते अवसाद ग्रस्त व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है।
आधुनिकता के अपने दर्द और पीड़ाएँ हैं। यूरोप इस पीड़ा के लंबे सफर से गुजरकर शांति और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बड़ी संख्या में भारतीय धर्म, दर्शन, योग, ध्यान सीख रहा है। ध्यान में आनंद तत्व को खोज रहा है क्योंकि उसे पता चल गया है कि वास्तविक आनंद तकनीकी उन्नति में नहीं वरन मन के भीतर ही है। अब तो कर्म, ध्यान, योग, राम, कृष्ण ये सभी शब्द यूरोप और अमेरिकी देशों के शब्दकोश के अभिन्न अंग बन गए हैं। उनके कई स्कूलों में संस्कृत के मंत्र पढ़ाए जाते हैं, रेडियो पर भजन गए जाते हैं। समस्त विश्व आज स्वास्थ्य के लिए भारत की तरह देख रहा है वहीं भारतीयों का यूरोपीय संस्कृति के प्रति अंधानुकरण समाज में तलाक, लिव इन, न्युक्लियर फैमिली,अवसाद जैसी विसंगतियों को जन्म दे रहा है।

प्रश्न- अपने पाठकों को कोई सन्देश देना चाहती हैं।
विनीता राहुरीकर- जी बिल्कुल। आज जो कुछ भी हूँ अपने पाठकों की वजह से ही हूँ। पाठकों से यही निवेदन है कि जितना प्यार आज तक उन्होंने दिया है वो आगे भी बना रहे। आशा है मेरे उपन्यासों को भी ऐसा ही स्नेह मिलता रहेगा।