नदी किनारे- रुचि शाही

सुनो! मिलते है न
हाँ उसी नदी किनारे
उसी पत्थर पर
बैठ के पानी में पैरों को
डुबाए हुए
ढेर सारी बाते करने के लिए।
एक दूसरे के काँधे पे
सर रख कर
अपने अपने गमों को
रोने के लिए।
पता है मुझे…
तुम बोलना शुरू करोगे तो
चुप होगे नही
और सारी बातें खत्म करके
बोलोगे पका रहा हूँ न तुम्हे?
पगले…
अगर तुम पकाते हो
तो मैं भी तो पकने आती हूँ।
सुनती हूँ तुम्हारी
आँसू से भीगी हुई नमकीन बातें
कभी खट्टी,कभी मीठी
कभी कुछ
कड़वी खारी बातें
पर बेमन से नहीं
भरपूर स्वाद लेते हुए
सुनती हूँ तुम्हे।
भीगता जाता है मेरा कांधा
तुम्हारे गर्म आंसूओ से
और मैं बहने देती हूँ तुम्हें
जज्बात के प्रवाह में
तुम्हारा जी जब तक हल्का न हो
कहते रहना तुम
और मैं सुनती रहूंगी यूँ ही
हमेशा हमेशा…

-रुचि शाही