मुखौटे में आदमी को- राजेश देशप्रेमी

दुनिया में सभी अपनें, कहने में क्या जाता है
मुखौटे में आदमी को कौन समझ पाता है

दिन-रात के अंतर को समझना आसान नहीं
मुश्किल में आसपास कोई नजर नहीं आता है

वक्त के घांव धीरे-धीरे हो ही जाते है समतल
मन में जकड़ा गांठ कभी कहां खुल पाता है

हर तरफ बह रही तेज नफरत की धारधार नदी
न चाह कर भी मन कहां डूबने से बच पाता है

जिंदगी भर बांटता रहा लोगों में प्यार से फूल
मतलबी दुनिया, कांटों से कहां बचा पाता है

-राजेश देशप्रेमी
(सौजन्य साहित्य किरण मंच)