मुक़द्दर को दिखाना चाहता है।
ख़ुदी को आज़माना चाहता है।।

बिखेरे वक़्त की आँधी ने जो भी
वो सपने फिर सजाना चाहता है।।

लगे है दाग जितने हारने के
मशक़्क़त से मिटाना चाहता है।।

नए आकाश में वो हौसलों के।
परिंदे फिर उड़ाना चाहता है।।

ज़माने भर के तानो को ज़हन से।
खुरच कर के मिटाना चाहता है।।

भुला कर रंजो-ग़म सारे जहाँ के।
नई दुनियाँ बसाना चाहता है।।

नही दरकार दौलत शोहरतों की।
फ़क़त रोटी, ठिकाना चाहता है।।

फ़लक के चाँद-सूरज सा नही वो।
दिये सा टिमटिमाना चाहता है।।

ज़माने भर को खुशियाँ बाँटता था।
वही खुद मुस्कुराना चाहता है।।

बनाकर रौशनी का एक क़तरा
चमन फिर से खिलाना चाहता है।।

बहुत मायूस था ‘सन्दल’ कभी जो।
वो जीने का बहाना चाहता है।।

-प्रिया सिन्हा सन्दल