अजीब से ख्वाब देखता हूँ मैं
कितने नादान दिख रहे है अभी
वफा के सूख चुके दरिये में,
प्यार की मछलियों की चाहत में ,
जाल एहसास का डाले- बैठे,
कितने तस्कीनजदा लगते हैं !!
अजीब से ख्वाब देखता हूँ मैं !!
समंदर दौड रहा नदी की तरफ ,
कैसा मंजर , अजीब बात है न !
सूरज आमादा है रात से मिलने
रात ख़ामोश , अजीब रात है न !!
अजीब से ख्वाब देखता हूँ मैं!!
ट्रेन के रुकने पे जब उतरता हूँ
एक भी शख्स प्लेटफार्म पर नहीं दिखता !
और तो और फिर निकलने को बाहर,
एक भी दरवाजा या रास्ता नहीं दिखता !!
अजीब से ख्वाब देखता हूँ मैं !!
तपते सहरे में बेसिम्त भाग रहा है कौन
और ये किसके पीछे भाग रहा हूँ मैं भी ?
किसकी तलाश जहन में यूँ तारी है कि
नींद मे होते हुये ऐसे जाग रहा हूँ मैं भी ??
अजीब से ख्वाब देखता हूँ मैं !!
किसी पहाड़ पर बारिश के पहले मौसम मे
किसी के साथ- साथ रोज भीग जाता हूँ!
कौन है वो,जो हकीकत में कहीं दिखता नहीं,
आँख खुलने पे तो वो चेहरा भी भूल जाता हूँ!!
आजकल अजीब से ख्वाब देखता हूँ मैं !!
ख्वाब में बारहा दिखती है मुझे एक नदी
और नदी के पार से आवाज एक आती है!
जानी पहचानी सी दर्दीली शीरानी आवाज
अजीब बात है तभी नींद टूट जाती है !!
इन दिनो अजीब से ख्वाब देखता हूँ मैं !!
–सुधीर पांडेय ‘व्यथित’