धूप से तपती धरा का बदन, तार-तार तन के वस्त्र, न शीश छुपाने की जगह, न एक बूँद पानी, पीड़ा से क्षत-विक्षत हृदय, आने वाले कल का कलुषित चेहरा आँखों के सामने मंडराने लगा।
बार-बार कराहने की आवाज़ से क्षुब्ध मन, पीड़ा के अथाह सागर में गोते लगाता, पल भर सहलाना फ़िर जर्ज़र अवस्था में छोड़ चले आना, यही पीड़ा उसे और विचलित करती कुछ पल स्नेह से सहला आँखों ही आँखों में दो चार बातें करना और स्नेह का प्रमाण पत्र उस के तपते बदन के पास छोड़ महानता का ढोल पीटती, मैं अपने घर पहुँची।
इस बार तापमान सातवे आसमान पर, धरा को अपने तेज़ से ख़ूब झुलसा रहा।हृदय में सुलगता करुण भाव, आँखों में चंद आंसू और मैं अपने दायित्व से मुक्त हो बग़ीचे की बेंच पर बैठ मुस्कुराने लगती। आने जाने वालों को एक टक निहारना कुछ पल प्रकृति से कुछ अपने आप से बातें करना, इसी दिनचर्या में मैंने अपने आप को समेट लिया।
आज शाम कुछ अलग-सी थी। बादल के एक-दो टुकड़े भी मुझे से मिलने आये, हवा भी आस-पास ही टहल रही थी। तभी, आसमां में धूसर रंग उमड़ने लगे और मैं अपने आप को उन में रंगती, भीनी-भीनी मिट्टी की खुशबू से अपने आप को सराबोर करने लगी। नज़ारा कुछ ऐसा बना की, आसमान में काले बादलों संग आँधी भी अरमानों पर थी।
(तभी जोर से चिल्लाने की आवाज़) मैं बैंच पर अपने आप को तलाशने लगी..
रीता-(कुछ बौखलाई हुई) चलो घर, पूरे कपड़े खराब हो गये, मिट्टी का मेक आप उफ़! मेरा चेहरा….
संगीता- (ढाँढ़स बँधवाती हुई ) अरे! कुछ देर बैठ, हवा के साथ बादल भी छंट जाएंगे, वैसे भी काफ़ी अच्छी हवा चल रही है, आँधी से इतना क्यों परेशान हो रही हो? देख सूरज ने कितना जलाया है मुझे? वह अपना हाथ उसे दिखने लगी।
(सूर्य की किरणों से होने वाला त्वचा कैंसर आज समाज में आम सी दिखने वाली बीमारी बन गई है)
सुनीता- (अपना मुँह बनाती हुई) क़सम से यार कितनी धूप है यहाँ! चलो मेरे घर, कुछ देर एसी की हवा में ठहाके लगाते हैं।
रीता- (सुनीता का समर्थन करती हुई) चलो कुछेक कोल्ड ड्रिंक भी ऑर्डर कर देते हैं (उस ने मेरी तरफ़ ताकते हुए कहा)
(मैं वहाँ ऐसे पेड़ की छाँव में बैठी जो आभास मात्र अपना एहसास करा रहा था। मुझे भी दिखावा मात्र ऐसे सहारे की आवश्यकता थी, जो लगे मैं छाँव में बैठी हूँ। वो उजड़ा हुआ बग़ीचा अक़्सर मुझसे बातें करता। मैं भी उसे काफ़ी बातें करती थी। काफ़ी घुल मिलने के बाद उसे संवारने की कोशिश काफी की भी, पर नाक़ाम रही)
अब वहाँ से सभी जा चुके थे, पर मैं उसी बेंच के चिपक गई, हल्की-हल्की बूंदा-बांदी होने लगी। एक-एक बूँद धरा के तपते बदन को छूती और अपना अस्तित्व गवां देती। दस मिनट यूँ ही बारिश होती रही, एक बूँद भी धरा पर नज़र नहीं आई। धरा की यह तपती काया अपनी अतृप्तता का बोध करती और व्याकुल नज़र आने लगी। ठूँठ बने उस छोटे से पेड़ से एक-एक बूँद टपकती और धरा से अपना स्नेह जताती इस स्नेह की साक्षी मैं शून्य का भ्रमण करती उन्हें देखती रही। एक बूँद भी उस ने अपने तन पर नहीं रखी। एक-एक कर सभी बूँद धरा को समर्पित कर अपने निस्वार्थ प्रेम का बोध करता सदृश्य। ज़ब भी उस सूखे वृक्ष को देखती हूँ उस का धरा के प्रति समर्पण शब्दों से परे….!
संगीता- (आश्चर्य से मुझे देखती हुई) अरे दी आप यहीं बैठी हैं?
मैं- जी आप भी बैठिये (मैंने बड़प्पन दिखाया)
रीता- नहीं वो मौसम अच्छा हो गया सो टहलने आ गये, वैसे हम…. (और उसने बेफर्स मुँह में डाल लिये)
संगीता- आप अक़्सर यहाँ आती है (बात बढ़ाते हुए कहा)
मैं-जी, ज़ब भी वक़्त मिलता है
सुनीता- (रेफ़र और कोल्ड्र ड्रिंक की खाली बोतल बेंच के नीचे डालती हुई) चलो पार्क का राउंड लगाते हैं…
(और वो लोग वहाँ से चले गये)
आज तन धरा का जला, कल हमारा|बेख़ौफ़ दौड़ रहे किस राह पर.. !!
भविष्य का भयानक चेहरा, असंवेदनशील होती भावना, क्यों न समझ रहे धरा का दर्द, कितना सहेगी और कब तक?
-अनिता सैनी