रूची शाही
ब्याह तो दिए गए लल्ला
पर पति कभी न बन पाए
माँ की ममता दिखती थी
पत्नी के प्रेम को ठुकराए
तुम्हें ब्याह के मैंने लाया है
तुम पर अब मेरी हुकूमत है
बिस्तर पर जितनी सिलवट है
बस उतनी सी मेरी मोहब्बत है
इससे ज्यादा तुम सोचो मत
मुँह बन्द रखो सहती जाओ
आखिर करने में क्या जाता है
जो माँ कहती है करती जाओ
यहाँ सब कुछ ऐसे ही चलता है
मुँह कोई खोल नहीं सकता है
हम गला तुम्हारा दबा देंगे पर
घर का अनुशासन डोल नहीं सकता
बड़ी आयी तुम पढ़ी लिखी
बीए और एमए करने वाली
औरतें रहती है अपनी हद में
एक तुम्हीं नहीं हो घरवाली
तुम सलवार सूट पहनती हो
सिर तक तो ढकना नहीं आया
छत पे भी यूँ ही निकल जाती हो
माँ बाप ने कुछ नहीं सिखलाया
सब को खिलाकर खाओ तुम
सब अपने धर्म निभाओ तुम
हम तो पुरुष है अपनी मर्ज़ी के
हमको न आँख दिखाओ तुम
हे पुरुष कहो आखिर तुमको
क्यों सामंजस्य बैठाना आया नहीं
माँ का त्याग अगर अनुपम है
तो क्या पत्नी ने कष्ट उठाया नहीं
कभी माँ के पल्लू से बंधे रहे
कभी बीवी के इशारों पे नाचे हो
कभी हालात के आगे विवश हुए
कभी अपना पुरुषत्व तक बेचे हो
एक दिन ससुराल जो रुकना पड़े
तो दिन में तारे दिख जाते हैं
और जीवन भर ससुराल में रह
हम सारे भेद-भाव सह जाते हैं।
आखिर पत्नी का मूल्य है क्या
तुम बोलो कब समझ पाओगे
एक वादा तो निभा पाते नहीं
कैसे सातों वचन निभाओगे।
सारे ऐश आराम मिल जाते हैं
बस मिलता केवल सम्मान नहीं
सबकुछ आसान है दुनिया मे
बस औरत होना आसान नहीं।