मैं जिन्दा रहूंगी
तूम्हारे आँखों के दोनो कोनों में
दया -दर्द की आँसू बनकर.
मैं जिन्दा रहूंगी
तुम्हारी बन्द मुट्ठी मे
अत्याचार के खिलाफ लड़ाई मे
सहयोग देकर.
मैं जिन्दा रहूंगी
तुम्हारी सिराआें में
दुश्मनों को रोकने के लिए
गर्म खून दौड़ाने के लिए
मैं जिन्दा रहूंगी
तुम्हारी कदमों
एक -एक कदम
कठिन और सत्य की डगर पर
ले जाने के लिये
मैं जिन्दा रहूंगी
तुम्हारे दिल में
आजादी की अभिलाषा में
विहंगे के जैसी पंख
लगाने के लिए
पवन प्राण, नश्वर देह को
त्याग कर
मैं जिन्दा रहूंगी
तुम्हारी दया और दर्द में
अत्याचार के खिलाफ
जोर आवाज में
सत्य की पथ पर अग्रसर
तुम्हारे कदमों में
और वसंती हवा
आजाद पसन्द
पवित्र मन में…
-चंद्रमोहन किस्कू
(बहन दामिनी के स्मृति में यह कविता लिखा गया है और उन्हीं को समर्पित किया गया है)