सदा-ए-खा़क को जानने के लिए शायर के नज़रिये और ग़ज़लों की बुनावट दोनो से गुज़रना होगा। जब ग़ज़ल उनके पैमाने में उतरती है तो उन्हीं की हो कर रह जाती है। वैसे ही जैसे गा़लिब को भावुक और रूहानी ग़ज़लों का प्रतीक माना जाता है। उन्होंने जो भी ग़ज़ल के ज़रिये कहा अपने मक़सद और यक़ीन को नहीं जाने दिया। फ़ौज़दार जी जानते हैं कि शायरी को किसी एक दायरे में कै़द करके नहीं रखा जा सकता। काव्य के तमाम रसों से लबरेज़ अश्आर सामान्य धरातल से उठ कर उस सतह तक जाते हैं जहां दुनियां जहान के दुख चिन्ताएं और बेचैनियां हैं। यही शायर की सर्वव्यापकता का सबूत है।
सदा ए ख़ाक का मतलब और मक़सद इतना सीमित नहीं है। शायर की नज़र से देखें तो ख़ाक का अपना एक वजूद है,जो ज़मीन से आसमान तक अपने होने के सुबूत पेश करता है। बहरहाल कई तस्वीरें बनती हैं ज़हन में जैसे हज़ारों का़फ़िले बदहवास से मकाम दर मकाम ख़ाक उड़ाते जा रहे हैं और एक गुबार एक शोर पूरे माहौल में तारी हो रहा है।नए संदर्भों में देखें तो मुख्य धारा में जो विमर्श चल रहे हैं जैसे शोषित उत्पीड़ित और हादसों की मार झेलते अनगिनत हाशिए के लोग,जलालत और बेबसी की ज़िन्दगी जीते हुए खा़क हो रहे हैं और उनकी मासूम चीखें हवा में गूंज रही हैं। जिन्हें सुनने समझने वाला कोई नहीं है। उसी तक़लीफ़ को महसूस करते हुए फ़ौज़दार जी कहते हैं
सदा ए ख़ाक आसमान से टकराई है,
लौट कर अपनी ही आवाज़ हमें आई
बरहना घूम रही है तलाशती कबसे
ज़िन्दगी कपडे़ कहीं रख के भूल आई है।
फ़ौजदार जी के सुखन में दरिया की रवानी है। बेतकल्लुफ़ सा उनका समूचा वजूद अल्फ़ाजों अश्आरों के धारों में गुम सा है। उन्हें बाजार की चकाचौंध विज्ञापनो की रंगीनियां और बनावटी फेै़ेशन परस्त दुनियां क़तई रास नहीं आती तो वे बड़ी साफ़गोई से कुबूल करते हैं।
सलीकेदार तकल्लुफ़ ने कर दिया माजू़र
मेरा मज़ाक ए तकल्लुम है इश्तेहार में गुम
उनके शेरों को पढ़ते हुए बेचैनी और तड़प साफ़ महसूस की जा सकती है। वे इस बेमुरव्वत दुनियां के दांव-पेंच से वाक़िफ़ भी हैं और संजीदा भी। अपनी शायरी के ज़रिए वे आवाम से सिर्फ़ अपना दर्द बयान नहीं करते बल्कि अपनी तजुर्बेकारी और सिफ़त से मश्वरा भी करते हैं। जैसे
बहुत अच्छा नहीं होता बहुत अच्छा होना
हमने ये बात कई बार आजमाई है।
इतना ही नहीं उम्र के लंबे सफ़र में हालात से ज़द्दोज़हद करते जिन्दगी की पेचीदगीयों के राज़ ज़ाहिर करते हुए से कहते हैं
ज़िन्दगी एक कड़ा इम्तिहान है शायद
मैं कुछ अफ़सुर्दा हूं वो मेहरबान है शायद
यक़ीनन फौजी हंस कर वक़्त की मार सहते हुए सब्र के हिमायती हैं। सदा-ए-खा़क सिर्फ़ आपबीती नहीं, बहुत से रंगों को उन्होंनें कलमबन्द कियाहै। उनकी शायरी सागर-ओ-मीना की ज़द से पार एक नया फ़लक गढ़ती है। उनका हौसला बुलंद है और उड़ानों की कोई इंतेहा नहीं। उन्हें अपनी काबिलियत पर भरोसा भी है और रश्क भी। वे बड़े यक़ीन से कहते हैं-
जिक्र परवाज़ की ऊंचाई का अगर निकला
आस्मा पर मेरा इक टूटा हुआ पर निकला
जिधर जिधर भी गए हम निशान छोड़ गए
हर कदम अजनबी मंज़िल को दखल कर निकला
यहां ये बशीर बद्र की बात से राजी़ लगते हैं कि
हम भी दरया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा,
यानी शायर ने अपने आप को पा लिया है, जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ, गो कि इस गहराई में उनका शायर उस साथी कद्रदान के लिए मायूस भी है और बेदार भी,जो उतनी ही शिद्दत से उन्हें महसूस कर सके जहां वे खुद को पाते हैं। उनकी दीवानगी और कलंदरी की रियासत में एक मुहल्ला बेहद मुलायम और रूमानी ख़्यालात का भी है।
बड़ी मासूमियत से शायर ने कुबूल किया है-
कंपन तेरी हंसी के बिखरते हैं आस पास
घुघरू सा बज उठा हूं मैं अपने में अनायास
मेहराब ए अबरुओं के बीच गोल सी बिंदी
गुरुद्वारे की दहलीज़ पे चंदा करे अरदास
एक बेजोड़ बिंब है जो अपने तरह की एक अलग मिसाल है। उनका इश्क पाकीज़ा और दिली है, दुनियां के फ़िकरे और तंज़ से हैरान हो कर शिकायती लहजे में कहते हैं
दुनियां ने मेरा इश्मजाजी समझ लिया
रूहानी वारदाद को जिस्मानी कह दिया
फ़ौज़दार जी में मीर की बेचैनी और कबीर की सधुक्कड़ी है,वो अपनी आवारगी और बिखराव को खु़द में समेटे अपनी धुन में रमे हैं।
मैं इक हुजूम की मानिंद बेतरतीब सा हूं
मुझे तलाश करोग तो बिखर जाओगे
ये उनका अपना अलग अंदाज़ है, जो- मोकों कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास, का जवाब सा लगता है। फ़ौज़दार जी के सामाजिक सरोकार भी कुछ कम नहीं। उन्हें मुल्क में फैले हुए जुल्मों, फ़सादों हादसों के गहरे अंधेरे बेचैन करते हैं। वो ख़ौफ़ज़दा नहीं हैं बल्कि इनसे निजा़त की ख़ास तरकी़बें पेश करते हैं। वो फ़िराक़ की तरह सुख़न की शम्मा जलाने के बजाए दूसरा उपाय बताते हैं।
ढलकती शाम हुई रात कोई चारा हो
चराग की तरह आंखे जलें उजाला हो
ऐसे ही न जाने कितने अश्आर हैं जो आवाम को कुछ न कुछ सेदेश देते हैं। कहना न होगा कि शायर ख़ुद अपने आप से एक नहीं कई बार गुज़रते हुए शायरी के मार्फत आम लोगों तक पहुंचा है। अब कुछ बातें फ़ौज़दार की रचना प्रक्रिया पर। फौज़दार ने जिस सधी हुई शैली और अंदाज़ में ग़ज़लें कही हैं ग़ज़ल रचना की पारंपरिक पहचान है। यूँ तो उर्दू अदब के उस्ताद शायरों की उनपर पूरी छाप है पर उनकी अपनी मौलिकता हमेशा बरकरार रही है। उनकी ख़ुद की बनाई ज़मीन,मिट्टी और आब ओ हवा है जिसकी बदौलत उनकी ग़ज़लें ताज़गी से लबरेज़ हैं। उनके शेर वज़्न रदीफ़ का़फ़िये में मुकम्मल और असरदार हैं। जहजी़ब के साथ सलीका़ भी काबिल ए तारीफ़ है। वो कहते नहीं सकुचाते कि-
बात करने का सलीक़ा भी अदब है फ़ौजी
वरना लफ्फ़ाजों ने तो तज़किरे हज़ार किए
यूं तो फ़ौज़दार जी ने उर्दू की आसान छोटी बहरों का खू़ब प्रयोग किया है पर बडे़ बहर की ग़ज़लें भी अपनी बुनावट और कहन में कुछ कमतर नहीं। अपनी रवानी और लय में नज़्म का सा लुत्फ़ देती हैं। वैसे भी फ़ौज़दार की ग़ज़लों से गुज़रते हुए कई बार लगा कि उनके भीतर गीतकार और एक गायक भी है। उनकी ग़ज़लगोई में बतकही सहज ही पाठक को खींचती है और उलझाए भी रखती है। फ़ौज़दार जी ने अहम फ़हम शब्दों के प्रयोग किए हैं पर सामासिकता से उन्हें परहेज नहीं उनकी कहन में सपाटबयानी नहीं,कलात्मकता के साथ हाज़िरजवाबी है। उन्हें पढ़ने के दौरान और पढ़ने के बाद भी कई गूढ़ अर्थ निकलते हैं। जो एक बड़े शायर की पहचान है। उनके शेर सचेत भी करते हैं और चौंकाते भी हैं। हिन्दी के देशज शब्दों की रदीफ़ से भाषा में अलग लुत्फ़ आ गया है। बडी़ सहजता और खिलंदड़ेपन में उन्होंने उस्तादाना शेर कहे हैं।
तुम्हें कहा न था फ़ौजी से न उलझो भाई
उसकी उनसे ही बनी है कि जो दीवाना हुआ
यहां यह कहना जायज है कि फ़ौजदार जी की ग़ज़लें कहने के लिए नहीं कही गई बल्कि तजुर्बे और सच्चाई की आंच में पकी और सीझी है। उनके अश्आर सिर्फ दो मिसरों का जोड़ नहीं जज़्बातों की एक दुनिया जो शायर की निजी ज़िन्दगी का निचोड़ है। सदा ए खाक तो एक बानगी है। फ़ा़ैज़दार जी के लिए दुआ भी है और गुजारिश भी कि इससे भी बेहतर ग़ज़लों का अगला संग्रह आए और पाठकों तक पहुंचे। वो न चाहते हुए भी मशहूर हों और तारीख में दर्ज हों। मिर्जा गा़लिब के हवाले से-
रगों में दौड़ते रहने के हम नहीं कायल
जो आंख से ही न टपके तो फ़िर लहू क्या है
-इन्दु श्रीवास्तव
38 नालंदा विहार,कचनार सिटी
विजय नगर,जबलपुर