Wednesday, January 8, 2025

आँगन: वंदना सहाय

वंदना सहाय

याद आते हो तुम, आँगन
कभी तुम्हारी चौड़ी छाती पर
खेलता था हमारा बचपन

जाड़े की मीठी धूप
जब गुनगुनाते हुए तुम्हें गुदगुदाती
तो तुम भी अपनी उनींदी आँखें खोल
देखते, हमारा खेलना
या फिर सुनते
धुप सेंकतीं, दादी -नानी का
आपस में बतियाना
जाड़े-भर तुम झेलते, अपने ऊपर
खाटों और कुर्सियों का बोझ
जहाँ कोई न कोई अलसाया-सा पड़ा होता
सुबह से शाम तक
पापड़-अचार भी जमा दिए जाते
सूखने के लिए तुम्हारे ऊपर
इठलाती हुई एक अरगनी भी गुजरती
ठीक तुम्हारे बीच से
विषुवत-रेखा की तरह
और हाँ,
एक था तुलसी-चबूतरा भी
जिसे तुम धारण करते थे अपने ऊपर
शेषनाग की तरह
लहलहाती तुलसी के चबूतरे पर जब
सझोखे में जलता दीया
तो तुम पावन हो उठते थे
मंदिर की तरह

पता नहीं, कैसे सहा होगा
तुमने बरसों-बरस
अपने कोने में बने रसोई-घर के चूल्हे की
असहनीय ताप को
हमारी रसोई के लिए

कैसे सहते थे तुम
हमारा गेंद की तरह उछलना अपने ऊपर
रोज़ ही हँस कर माफ़ कर देते

पर, यह आत्मीय बंधन
गर्मी में पराया हो जाता
गर्मी के आते ही तुम
अकेले हो जाते
दिन-भर सूर्य की प्रचंड किरणें
तुम्हें मूर्छित-सा कर जातीं
पर,साँझ की जीवन-दायनी
बयार के बहते ही तुम
धीरे-धीरे अपनी आँखें खोल देते
और फिर धोये जाने पर
मुस्कुरा उठते थे- निर्मलता से
किसी अबोध बच्चे-की तरह

बारिश के आते ही तुम भी भींगते
हमारे संग, और नहा कर हो उठते
शीतल-धवल, चाँद की तरह

पर, अब तुम बिलकुल भुला दिए गए हो

एक बार तुम्हें फिर-से देखने की
हार्दिक चाह मुझे ले गई थी, तुम्हारे पास
पर, अब वहाँ अपार्टमेंटों के जंगल उग आये थे
और तुम मिले नहीं

तुम खो गये थे कहीं
उन्ही अपार्टमेंटों के जंगल में

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