डॉ सोनी पाण्डेय
हर बार उघड़ जाती है सिवान में
फटी बिवाईयों की बारीक तुरपन
जिसे बचाने की ज़िद में
जबरन पकड़ कर तुरपते रहे
इन उघड़ी हुई बिवाईयों से टपकता है
कभी आग
कभी पानी
इस बार भी बरखा नहीं हुई
सिवान में गोबर की गन्ध से महमह महकता हुआ
लिपा पुता खरिहान
जोहता है बाट
कटी फसल की अलसाई सी अंगड़ाई जब
तोड़ेंगी एक लय से पटकते हुए
बाँस की बल्लियों पर
फुलवा और रुपवा
सिवान की बिवाई थोड़ी भर जाती देखकर
जो हो जाती तुरपन भर बरखा
अगियाई धरती पसार कर अँचरा
न मांगती मुट्ठी भर धान
न टूटती तुरपन सिवान की बिवाईयों की