अंजना वर्मा की कहानियों में आम जन और जीवन: नीलू चौधरी

समीक्षक: नीलू चौधरी

समकालीन हिंदी रचना परिदृश्य का एक चिरपरिचित नाम है अंजना वर्मा। सशक्त कथाकार, गीतकार, कवयित्री ने साहित्य सर्जन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई सम्मानों से विभूषित अंजना वर्मा की कहानियों का केंद्र-बिंदु आम जन है। अंजना जी की कहानियों को पढ़ते हुए मुझे यह एहसास हुआ कि उनकी लेखनी अपने आसपास के चरित्रों को ही शब्दों का जामा पहना देती है और इसी कारण पाठक इनकी कहानियों में अपनी जिंदगी तलाशने लगते हैं। खुद लेखिका के शब्दों में, “हमारी आपस की बातें भी किसी-न-किसी कहानी का टूटा हुआ हिस्सा ही होती है। जहाँ भी मनुष्य और दुनिया-संसार की बातें हैं, वहाँ कहानियाँ हैं।”

सच ही तो है ! हम सबकी जिंदगी किसी-न-किसी कहानी का ही हिस्सा है, जिसे लेखक अपनी भाषा और संवेदनाओं से सजाकर कहानी का रूप दे देता है। हमारे आसपास रोज ही छोटी-मोटी घटनाएँ घटती रहती हैं। रोजमर्रा की बातें कही-सुनी जाती हैं, पर अंजना वर्मा जैसी लेखिकाएँ अपनी पैनी नजरों और संवेदनशील सोच के माध्यम से उन रोजमर्रा की घटनाओं को शब्दों में ढालकर कहानी के रूप में पाठकों के बीच प्रस्तुत कर देती हैं।अंजना वर्मा जी की कहानियाँ अपने भीतर अधिकांश रूप से आमजन की जिंदगी को समेटती हैं। लेखिका को समाज के संघर्षरत वर्ग ने अधिक प्रभावित किया है, जो उनकी कहानियों को पढ़ने से ज्ञात हो जाता है।

उनकी कहानी ‘फिर कभी बताऊंगा’ का इमरान हमारी-आपकी गलियों से गुजरने वाला गरीब कबाड़ी वाला लड़का है, जो जीने के लिए रद्दी सामान और पुराने पेपर घर-घर से इकट्ठा करता है। ऐसे लड़के को संपन्न वर्ग अच्छी नजरों से नहीं देखता। उनकी गरीबी ही उन्हें शक के घेरे में लाकर खड़ा कर देती है। लेकिन लेखिका का विश्वास आमजन में है, जिसके कारण लेखिका ने गरीब लड़के इमरान की ईमानदारी और इंसानियत को उजागर किया है।

कोरोना की विभीषिका हमलोगों से छुपी नहीं है। लेकिन लॉक डाउन की मार आम गरीब लोगों और ऐसे मध्यमवर्गीय लोगों को अधिक झेलनी पड़ी, जो छोटी-मोटी नौकरी के जरिए कई-कई सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे। ऐसी ही कहानी है ‘सवाल एक चने की दाल का’, जो कोविड काल में मध्यवर्गीय परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य की मजबूरियों और संघर्षों का पिटारा खोलती है। क्या बीतती है पीड़ित परिवार पर? लेखिका ने सभी सदस्यों की मानसिक स्थितियों का खुलासा इतनी खूबसूरती से किया है मानो यह परिवार हमारा ही पड़ोसी हो। लेखिका ने कोविड के आर्थिक संकट में फँसे एक आम आदमी की संवेदनाओं का रेशा-रेशा वर्णन करते हुए पीड़ित घर की दुखद सच्चाई से परिचित कराया है।

वर्तमान समय में शिक्षा का जितना ही प्रचार-प्रसार होता जा रहा है, मनुष्य के मनुष्य बनने का संघर्ष उतना ही प्रबल होता जा रहा है। मानव की हैवानियत उसे उतनी ही मजबूती के साथ अपनी गिरफ्त में लेती चली जा रही है। बलात्कार जैसी घृणित घटनाओं का बढता हुआ प्रतिशत मनुष्य के माथे पर अमिट कलंक का धब्बा बन गया है।

लेखिका की कहानी ‘दबी हुई फाइल’ न केवल दरिंदगी की शिकार बन गई एक कालेज की लड़की की संवेदनाओं, प्रतिकूल पारिवारिक परिस्थितियों, मजबूरियों, घुटन और पीड़ा को बयां करती है, बल्कि लोकतंत्र के खोखले और चापलूस शासन-तंत्र की भी पोल खोलती है। इस कहानी के जरिए आज के पारिवारिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक संदर्भ में कितने-कितने प्रश्न खड़े हो जाते हैं। यह एक मध्यवर्गीय लड़की की कहानी है जो सामूहिक बलात्कार की शिकार होती है। लंबे समय तक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझते हुए बच जाती है। पर घर-परिवार, समाज-दोस्त कोई उसकी मानसिक दशा को नहीं समझता उल्टे ऐसा महसूस करवाता है मानो उसीने कोई अपराध किया हो। थाने में रिपोर्ट करवाने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं होती। ज़िल्लत झेलने के बाद भी लड़की जीने की राह खोजने में लगी है। वह कहती है, “सिर उठा कर जीऊंगी… मैंने कोई अपराध नहीं किया है।” यह कहानी समाज की लिजलिची सोच को अंगूठा दिखाती हुई पीड़ित लड़की के संदर्भ में एक नई रोशनी भरती है।

अपनी औलाद नहीं होने पर परिवार और समाज द्वारा कहा जाने वाला बांझ शब्द औरतों के लिए बहुत बड़ी गाली है, जो हृदय में शूल की भाँति चुभता-सा प्रतीत होता है। कहानी ‘जवाब’ में नि:संतान औरतों के प्रति अपनों के दुर्व्यवहार और अत्याचार को दर्शाया गया है जो कहीं-न-कहीं हम सबके बीच से ली गई कहानी है।

‘एक फोन कॉल’ शीर्षक कहानी ऐसी है, जो घर-घर की कहानी प्रतीत होती है, जिसे पढ़कर बरबस आँखों में आँसू आ जाते हैं। हमारे बुजुर्ग की जड़ें जुड़ी होती हैं पुरखों के मकान और जमीन से। नई पीढ़ी चंद पैसों की खातिर उनकी जड़ों को नोच-काटकर हटा देती है और उन्हें अपनी धरती, अपना बसेरा खोकर, उपेक्षित जीवन जीना पड़ता है, जहाँ अवसाद का अंधकार अपना बसेरा बना लेता है, जो निश्चय ही असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है।

लेखिका का दूसरा कहानी संग्रह ‘अंतत: एवं अन्य कहानियाँ’ की पहली कहानी ‘एक और सही’ पढ़ते हुए मुझे बचपन की घटना याद आ गई। हमारे यहाँ गृह-निर्माण का काम चल रहा था। दुबला-पतला-सा एक राजमिस्त्री आता था। चेहरा अच्छी तरह याद नहीं है। नाम था उसका बटोरन। उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी। पर उसके चार बच्चे थे, जो उसे कभी झाड़ी में, कभी किसी खेत में,कभी किसी अस्पताल के बाहर, तो कभी कहीं निर्जन स्थान में नवजात शिशु के रूप में फेंके हुए मिले। बटोरन दोनों पति-पत्नी माँ-बाप की तरह उन बच्चों पर जान छिड़कते थे और उसे भगवान का दिया उपहार कहते थे। ‘एक और सही’ कहानी में केदारनाथ और उसकी पत्नी निमकी, सोनपापड़ी वगैरह घर में तैयार कर बाजार जाकर बेचते थे और उसीसे छह बच्चों का पालन-पोषण करते थे। उन्हें सुनसान रात में बाजार से लौटते हुए झाड़ी के पीछे एक बच्ची फेंकी हुई मिली। दोनों उसे उठाकर घर ले आते हैं और अपनी बच्ची बनाकर उसका पालन पोषण करते हैं। उसके लिए उनके अंदर वात्सल्य जाग जाता है।

कहानी ‘विश्वकर्मा’ एक ऐसे मजदूर की कहानी है, जो एक बिल्डर के अधीन भवन-निर्माण का कार्य करता है। इस कहानी का नायक प्रभुस्वामी सैकड़ों घर बना चुका है, पर खुद बेघर बना अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ खानाबदोश का जीवन बिता रहा है। इस कहानी की ये पंक्तियाँ दिल को झकझोरने वाली हैं, “जीवन में बहुत भौतिक वस्तु की इच्छा न करने वाले के लिए भी अपने भौतिक शरीर की ही चिंता बहुत हो जाती है। इसी के लिए भौतिकता से नाता जोड़ना पड़ता है।” लेखिका ने कड़वी सच्चाई से रूबरू करवाया है।

कहानी ‘पहरेदार की सीटी’ में लेखिका ने कितने खूबसूरत ढंग से बाढ़ की विभीषिका का चित्रण किया है कि पाठक के समक्ष बाढ़ की विभीषिका और उससे उपजा दर्द जीवंत हो उठता है। लोटन जैसे कितने ही ग्रामीण हर वर्ष बाढ़ की त्रासदी झेलने को बाध्य हो जाते हैं।

कहानी संग्रह “कौन तार से बीनी चदरिया” की कहानियों को पढ़कर ऐसा लगा मानो लोगों की पीड़ा-व्यथा को जीने वाले ही ऐसी कहानियों का सृजन कर सकते हैं। लोगों की व्यथा-कुंठा, हार-जीत, खुशी-गम — हर एक मनोभाव को शब्दों में ढाल देने की कला अंजना वर्मा जैसी लेखिकाओं में ही समाई होती है। इस संग्रह में कहानी ‘अज्ञातवास’ हो या ‘दुर्घटना’, ‘सोई झील में पत्थर’ हो या ‘अनारकली’- इन सबके नायक-नायिकाओं के जीवन में आम जन का यथार्थ ही झाँकता है। इस संग्रह की पहली कहानी ‘कौन तार से बीनी चदरिया’ पढ़कर मन अनायास बचपन की उन यादों में खो गया जब अक्सर ट्रेन यात्रा के दौरान महिलाओं का एक समूह तालियाँ बजाते, बच्चों को आशीष देते कुछ माँगा करता था। उस वक्त हम समझ नहीं पाते थे कि ये कौन हैं? बाद में उनकी दुरूह जिंदगी समझ में आई। लेखिका ने बहुत ही मार्मिक तरीके से इनकी जिंदगी के दर्द को सुंदरी किन्नर के माध्यम से कागज पर उकेरा है।

अन्य कहानियाँ भी हैं, जो बेहद मार्मिक, हृदय को व्यथित करने वाली, शिक्षाप्रद और यथार्थ के कठोर धरातल पर लिखी गई हैं, जो पाठकों के दिल -दिमाग को पूरी तरह झकझोर देने वाली हैं। इन कहानियों में ‘विसर्जन’, ‘छत’, ‘दरिद्रभोज’ जैसी कहानियाँ भी हैं, जो जीवन और समाज की आम बातों में छिपी गहन संवेदनाओं की धड़कनें सुनती हैं।

संग्रह की सभी कहानियाँ कुछ-न-कुछ संदेश देती हुई सरल भाषा में लिखी गई हैं। कहानी संग्रह ‘गिरिजा का पिता’ की अधिकांश कहानियाँ भी लोक जीवन से सरोकार रखती हैं। शीर्षक कहानी ‘गिरिजा का पिता’ में बारह वर्ष के जयप्रकाश की कहानी है, जो पिता की मौत के बाद घर की जरूरतों को पूरा करने और बहन गिरिजा की पढ़ाई के लिए छोटी-सी उम्र में घरेलू नौकर बन जाता है। बालश्रम की सच्चाई से अवगत कराती मर्मस्पर्शी कहानी है यह! वहीं ‘सिर्फ पैंतीस रुपये’ एक युवक की कहानी है जो महत्वाकांक्षी है और अपने परिवार के सुख के लिए गाँव छोड़ कर महानगर आता है। वहाँ की चकाचौंध उसे रास आती है और वहाँ से वह खूब पैसे कमाकर गाँव लौटना चाहता है। लेकिन बहुत जल्द ही वह महानगर की मृगतृष्णा से अवगत हो जाता है। कहानी में उसकी असहाय अवस्था से पाठक का मन विचलित हो जाता है। यह हमारे गाँव से महानगर की ओर पलायन कर रहे युवा वर्ग की कहानी है।

भारत एक ऐसा देश है जिसके संदर्भ में यदि गरीबी और भूख की चर्चा न की जाय, तो आम जीवन का यथार्थ अधूरा ही रह जाएगा। कहानी ‘दो रोटियाँ’ बेहद मर्मस्पर्शी कहानी है, जो एक निकम्मे, दोब्याहे, नशाखोर और निकम्मे पति के पल्ले से बाँध दी गई स्त्री के दैनिक संघर्ष, अभाव और बेबसी की सच्ची तस्वीर उकेरती है। वह किस मानसिक यंत्रणा से गुजरती है, उसे लेखिका ने कहानी के माध्यम से बखूबी समझाया है। इस संग्रह की अनेक कहानियाँ आम जन के दर्द, पीड़ा और टीस को बयां करती हैं।

अंजना वर्मा का एक बहुत सहज किंतु गहरा रिश्ता प्रतीत होता है अपनी कहानियों और उनके पात्रों के साथ, तभी अभाव झेलते हुए गरीब तबके के लोगों की जिंदगी को उन्होंने बखूबी समझा है और अपनी संवेदनाओं तथा विचारों को शब्दों में ढालकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इन कहानियों पढ़ने के बाद यह महसूस होता है कि लोक जीवन में लेखिका की गहरी पैठ है। इसीलिए इन्हें आम जन की लेखिका कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है।