Saturday, April 27, 2024
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हमारी विरासत की पड़ताल: वंदना मिश्रा

समीक्षक- वंदना मिश्रा
प्रोफ़ेसर जीडी बिनानी पीजी कॉलेज, मिर्ज़ापुर-231001
समीक्ष्य कृति- पंरपरा की पहचान
लेखक- प्रोफ़ेसर अवधेश प्रधान
प्रकाशन- प्रलेक प्रकाशन

मेरे हाथ में आदरणीय प्रोफ़ेसर’ अवधेश प्रधान’ जी की पुस्तक ‘परम्परा की पहचान है’, जिसमें उनके समय-समय पर लिखे तथा बोले गए साहित्यिक विचारों को संकलित किया गया है।

संक्षेप में कहा जाए तो यह पुस्तक विभिन्न ग्रन्थों, व्यक्तियों के साथ ही भारतीय परम्परा एवं संस्कृति को वाया अवधेश प्रधान जी देखना है।

तथ्यों को डिकोड करने की अद्भुत क्षमता है प्रधान जी में। ‘तुलसीदास’ की खोज और उनकी पुनः सृष्टि का दायित्व निभाते हुए , वे वाल्मीकि रामायण की भी पड़ताल करते हैं। तभी रामायण को धर्म निरपेक्षता का काव्य मानते हैं।

अवधेश प्रधान जी ने अपनी इस पुस्तक में क्लासिक संस्कृति, कैसे वेद में और वेद की संस्कृति कैसे सुसंस्कृत होकर लोक की संस्कृति में समाहित हो जाती है। इस पर गंभीरता से विचार किया है।

पुस्तक के तीन खंड हैं लेकिन तीनों में इस बात पर गहन शोध किया गया है कि क्यों हमारी भारतीय संस्कृति और परंपरा विश्व की श्रेष्ठ संस्कृति में है।

हमारी परम्परा किस प्रकार प्रगतिशील और आधुनिकता के सूत्र लिए है, इसकी पुष्टि उन्होंने विभिन्न प्राचीन और नवीन ग्रन्थों से की है।

राहुल सांकृत्यायन ने इसी दृष्टि से ‘भिखारी ठाकुर’ को देखा मार्क्सवादी विचारको में रामविलास शर्मा परंपरा को लेकर सबसे गंभीर थे।

ध्यातव्य है कि उनके निबंधों का शीर्षक भी ‘परंपरा का मूल्यांकन’ है। अकारण नहीं कि प्रस्तुत पुस्तक के हर खंड में रामविलास शर्मा आएं हैं।

उन्होंने भाषा विज्ञान, इतिहास, साहित्य सभी में इस बात पर विचार किया। रामविलास जी ने बौद्ध और उपनिषदों दोनों के चिंतन में कई समानताएं दिखाई हैं। यथा अनुभूत सत्य को ही सत्य माना, अंध श्रद्धा पर नहीं, विवेक पर ज़ोर दिया गया। रामविलास जी ने माना कि हिंसक यज्ञों का विरोध बुद्ध में ही नहीं उपनिषदों एवं चार्वाकों में भी मिलता है। बुद्ध ने उसे जन आंदोलन का स्वर दिया, क्योंकि उनके पास बुद्धि के साथ सदय हृदय भी था। भारतीय साहित्य लोक से एकदम निस्पृह नहीं है। उसके भौतिक कर्तव्य भी हैं, जिन्हें अध्यात्म की तरह ही निभाता है वो। ‘कर्म ही पूजा है’ इसीलिए हमारा मूलमंत्र है। हम जीवन भी आध्यत्मिक तरीके से जीते हैं, उसके लिए सन्यासी नहीं सन्यस्त होने की आवश्यकता है।

कालिदास की नज़र में ब्रह्म सत्य था पर संसार मिथ्या नहीं है।

हमारी परंपरा कितनी प्रगतिशील रही है यह भिखारी ठाकुर, त्रिलोचन, विवेकानंद, रविन्द्र के साहित्य में मिलता है।

साहित्य किस प्रकार समाज को जागरूक करता है, यह भिखारी ठाकुर की रचनाओं में देखा जा सकता है। साहित्य कैसे बिना दण्डित किए, परिवर्तन करता है यह पता चलता है। भिखारी ठाकुर के नाटक ‘बेटी विलाप’ और ‘बेटी निहोरा’ देखकर लोगों ने बाकायदा पंचायत करके इस प्रथा को समाप्त कर दिया। (पृष्ठ 330)

अपने ‘नष्ट जीवन’ को सामने रख बेटी पिता से अपने लिए नहीं बल्कि औरों की बेटियों का जीवन बचा लेने की गुहार लगाती है। जो मेरे साथ हुआ वो किसी और के साथ न हो यह विचारधारा भारतवर्ष में ही हो सकती है।

बेटी जो कहती है वह परोपकार और प्रगतिशीलता की पराकाष्ठा है, मेरा यह विलाप सुनकर किसी को बेटी बेचने मत देना। ‘बेटी मत बेचे दिहा केहू के हो बाबूजी’ (पृष्ठ 330)

भिखारी ठाकुर का ‘गबर-घिचोर’ नाटक प्रगतिशीलता की एक उत्तम छवि प्रस्तुत करता है, जिसमें बच्चों पर मां के हक का समर्थन किया गया है।

भिखारी ठाकुर लिखते हैं ‘छूरा छूटल नाच काजर से’

केदारनाथ सिंह इसे ‘हिंसा के ऊपर कला की जीत के रूप में दर्ज करते हैं।’

अवधेश सर, रामविलास शर्मा जी की ही तरह अपनी परंपरा को बार-बार निरखते और परखते हैं। हिंदी जातीय साहित्य का प्रवाह भी इस पुस्तक में दिखता है, जिसमें कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, कुंवर नारायण से लेकर, बल्ली सिंह चीमा, अनामिका और काशीनाथ सिंह जी तक के लेखन पर विचार किया गया है।

ऐसा हर युवा और नया कवि प्रधान जी की दृष्टि से गुजारा है जो परंपराओं का समर्थन, उससे टकराने और उसे दिखाने में सहयोग करता है।

कुंवर नारायण जी ‘नचिकेता’ की कथा को नया रूप देते हैं और काशीनाथ सिंह ‘उपसंहार’ में कृष्ण के अंतिम दिन पर विचार करते हैं। तमाम युद्ध और विजय के बाद भी न पांडवों को कुछ हासिल होता है न कृष्ण को। इस तरह से यह नए अर्थ भी खोलता चलता है।

तुलसीराम जी द्वारा रचित ‘मुर्दहिया ‘तथा ‘संजीव’ द्वारा रचित भिखारी ठाकुर पर लिखे उपन्यास ‘सूत्रधार’ पर भी पुस्तक में विचार किया गया है।

प्रस्तुत पुस्तक का हर निबंध एक स्वतंत्र लेख की मांग करता है।

परंपरा की पड़ताल करते हुए ‘सर्वधर्म समभाव’ की अवधारणा पर भी नए ढंग से विचार किया गया।
‘श्यामा चरण ‘जी का कथन है ‘धर्म नहीं धर्मान्धता से लड़ो’।

लोग बिना समझे धर्म के विरोध में बोलते हैं पर यह कारगर नहीं है। ‘सर्व धर्म समभाव’ ही ज़रूरी है।धर्म का निषेध नहीं हो सकता, उसका परिष्कार हो सकता है।

सभी भक्त राजनीतिक तो नहीं है, ज़्यादातर धर्म को जीवन मूल की तरह लेते हैं। वह उनके आत्मविश्वास का स्रोत होता है। इसलिए एक ऐसी धारणा ज़्यादा मनोवैज्ञानिक है जो सबकी भावना को ले कर चले।

‘त्रिलोचन’ प्रधान जी के प्रिय कवि रहे हैं। उन पर लिखे लेख में पढ़ाई को लेकर त्रिलोचन की माँ और उनकी बुआ के बीच में जो संवाद होता है वह प्रगतिशीलता की एक झांकी है, जिसमें माँ कहती है कि हमारे यहां पढ़ाई नहीं सहती, लेकिन पढ़ने के लिए तैयार होते हैं त्रिलोचन। उनकी बुआ उनका विभिन्न तर्कों से साथ देती हैं। प्रधान सर सिद्ध करते हैं कि प्रगतिशील होने के लिए शोर करना आवश्यक नहीं- ‘इस जनपद में केवल पुरानी लकीर के फकीर ही नहीं नई लकीर बनाने वाले भी हैं। पुराने और नए विचारों में संघर्ष भी चल रहा है। कोई आंदोलन न चल रहा हो तो भी वहां प्रगतिशील विचारों के लिए जमीन मौजूद है।’ (पृष्ठ 282)

प्रधान जी भारत की मानसिकता को बताते हैं। हर परिवर्तन झण्डा ले कर ही नहीं होता कुछ भीतरी स्तर पर भी होते हैं- ‘आंदोलन हमेशा घोषित और प्रदर्शनकारी नहीं होते चुपचाप भी बहुत से आंदोलन चलते रहते हैं। समाज की नई प्रगति का उसे पता नहीं।’ (पृष्ठ-282)

अनेक उदाहरणों से कवियों और लेखकों की स्वतंत्र चेतना को दिखाया है, इस पुस्तक में-
त्रिलोचन की कविता ‘कलकत्ते पर बजर गिरे’ की एक नई व्याख्या करते हैं। प्रायः इस कविता को हल्के में ले लिया जाता है।

‘कोलकाता पर वज्र ना गिरे इसलिए यारों ने कविता पर वज्रपात कर दिया। यह पूंजी के विरुद्ध प्रेम का प्रतिरोध है यह निर्मम पूंजी के विरुद्ध पीडि़त मानव हृदय की अभिशाप वाणी है, जिसने गांव के गांव, प्रदेश के प्रदेश, राष्ट्र के राष्ट्र उजाड़ दिए।’

लेखकीय साहस के कुछ एक अन्य उदाहरण दृष्टव्य हैं-

‘जियावन ने देखा अब बात नहीं वह पहले जैसी हथियारों से घिरे-घिरे हैं.. उनको ऐसी क्या शंका है।’ (पृष्ठ- 284)

कुंभ मेले में भगदड़ और लाशों का ढेर राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद पर ‘ऐसा हो कि राष्ट्रपति जीमें /फिर डकार ले, दुर्घटना से मुझे दुख है यह सकार ले।’

प्रधान जी लिखते हैं- ‘तत्कालीन राष्ट्रपति पर इतना तीखा कड़वा व्यंग्य हिंदी कविता में खोजे ना मिलेगा।’ (पृष्ठ-288)

त्रिलोचन को प्रधान जी यूँ ही लोकहृदय कवि नहीं कहते हैं।

‘आग लगे इस राम राज्य को’ -नागार्जुन

राज्यपाल साहित्यकार कन्हैया लाल मानिक लाल मुंशी उनके घर दावत है। ‘जनता में कब होगा/ जनता का अधिकारी/कब स्वतंत्र होगी यह जनता टूटी हारी’ (पृष्ठ- 288)

‘त्रिलोचन जिस जनपद के कवि हैं वह भूखा दुखा भले हो लेकिन अपने समय और समाज से न अनजान है, न उदासीन, उसे जीवन की गहरी समझ है।’ (पृष्ठ-289)

‘मानस के हंस’ पर टिप्पणी करते हैं-
रामायण कथा में ‘सीतायाश्चरितम महत’ है तो नागर जी के इस उपन्यास में ‘रत्ना’ का चरित्र, वह आलोक सूत्र है जिसके सहारे तुलसीदास मानस का हंस बनते हैं। (पृष्ठ-342)

‘नागर जी ने ‘मानस का हंस’ में तुलसीदास को ब्राह्मणवाद और कट्टरपन के लांछन से भी मुक्त करने का प्रयास किया है।’ (पृष्ठ-344)

भक्ति काल कायरता और पलायनवादिता का काल नहीं था। उस काल के कवियों का आत्मविश्वास और सत्ता को निःसार समझने का साहस दृष्टव्य है-
‘तुलसी अब का होइहैं नर को मनसबदार’ और ‘संतन को कहां सीकरी से काम’ से ज्यादा प्रगतिशील क्या कहा जा सकता है। इस काल का साहित्य ऊर्ध्व बाहु होकर घोषणा करता है कि लक्ष्य बड़ा होने से ही साहित्य बड़ा होता है। (पृष्ठ-353)

भक्ति काव्य पर विचार करते हुए प्रधान जी लिखते हैं-
‘भक्ति काव्य ने कमजोर से कमजोर आदमी को बड़े से बड़ा दुख और विपत्ति धैर्य पूर्वक सह लेने की शक्ति दी। यहाँ परंपरा के विरुद्ध आधुनिक चेतना का मरणांतक संग्राम नहीं वरन परंपरा के साथ आधुनिकता का सामंजस्य ही प्रधान स्वर रहा है।’ (पृष्ठ-356)

जायसी के यहाँ हिंदू कथाओं का जो स्वरूप मिलता है, वह शास्त्रीय पाठ के बजाय लोक में प्रचलित जनपदीय पाठ से मेल खाता है।

शुक्ल जी लिखते हैं ‘हिंदू कथाओं का यदि उन्हें अच्छा परिचय न होता तो कभी चंद्रमा को स्त्री न बनाते उनके चंद्रमा वही है, जिन्हें अवध की स्त्रियां चांदमाई धाइ आवा कह कर बुलाते हैं।’ (जायसी ग्रंथावली भूमिका पृष्ठ-166)

‘जायसी के बारहमासा के दोहे प्रायः स्वतंत्र से हैं, संभव है कवि ने उन्हें लौकिक परंपरा से ज्यों का त्यों उठा लिया हो।’ (इतिहास और आलोचना पृष्ठ-167)

पद्मावत के खंड में अध्यात्मिक रस के बजाय अवध की ईख जैसा लोक रस है। सिंहलद्वीप में गंगा-जमुना, वृक्ष जातियां सब अवध प्रदेश के।

पद्मावती के विदाई का भाव, हमारे लोकगीतों से मिलता है।

परंपरा की तलाश में उन्हें आचार्य ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी’ द्वारा लिखित ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ मिलती है जिसकी भट्टिनी ही नहीं निपुणिका और महामाया सभी अद्भुत तेजस्विता रखते हैं। जिन्होंने ‘प्रधान सर ‘को इस उपन्यास पर बोलते हुए सुना है, इस लेख को पढ़ते हुए, उनका चेहरा और भाव भंगिमा याद किए बिना न रह सकेगा। उस निबंध के कुछ महत्वपूर्ण अंश देखिए-

‘भागवत धर्म ने धर्मशास्त्र को पुरोहित तंत्र के पंजे से छुड़ाकर व्यापक जनता को आंतरिक पीड़ा से मुक्ति की राह दिखाई और धर्म के भीतर लोकतंत्र का द्वार उन्मुक्त किया। (पृष्ठ-401)

‘एक विशेष बात है सारी कथा में स्त्री महिमा का बड़ा तर्क पूर्ण और जोरदार समर्थन समर्थन है।’ (पृष्ठ-395)

‘साधारणतया जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है, उनमें एक दैविक शक्ति भी होती है, यह बात लोग भूल जाते हैं मैं नहीं भूलता। मैं स्त्री शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ।’
(पृष्ठ-395)

‘स्त्री की मुक्ति मानव जाति की मुक्ति के साथ है उससे अलग नहीं।’ (पृष्ठ-404)
मानवमात्र की एकता का इससे बड़ा सिद्धान्त हो नहीं सकता-
‘महामाया जिन्हें मलेक्छ कह रही है, वह भी मनुष्य है।’

‘मेघदूत को फिर से पढ़ते हुए’ निबंध में लिखते हैं-
‘विरह में प्रेम राशि भूत हो जाता है यह मेघदूत का चरम वाक्य है।’ (पृष्ठ-416)

रवींद्र नाथ की ‘रूस की चिट्ठी’ उनकी सोच को प्रदर्शित करती है। जिसके भय से अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने उसे जब्त कर लिया था। साहित्य के प्रभाव को दिखाने वाला है शासन का यह भय।

प्रधान जी प्रभावित होते हैं पर अंधश्रद्धा नहीं रखते इसलिए तुलसीदास जी के असंगत तथ्यों को रेखांकित करते हैं और महिमा धर्म के ‘भीमा भोई’ के विषय में प्रचलित किंवदंतियों की भी पड़ताल करते हैं।

प्रस्तुत पुस्तक में परम्परा का अंधानुकरण नहीं बल्कि उनकी पड़ताल करते हुए उन्हें परिमार्जित भी करना उद्देश्य है। यही कारण है कि काशीनाथ सिंह जी के उपन्यास ‘उपसंहार’ में श्री कृष्ण के चरित्र की पड़ताल करने से, उनके देवत्व को टटोलने और उन्हें भी व्यर्थता बोध से भरे हुए दिखाने से गुरेज नहीं किया गया है।

युद्ध की निरर्थकता और विजय की निस्सारता को बखूबी चित्रित किया गया है। परम्परा का केवल अतिरेकी गुणगान नहीं मृत परम्पराओं की काट छाँट भी है।

रामधारी सिंह दिनकर ने हिन्दू मुस्लिम एकता और धर्म की जो सार्थक व्याख्या की, साथ ही कबीर, गाँधी और अकबर की धार्मिक भावनाओं और एकता के प्रयासों में भिन्नता को भी चिन्हित करने का प्रयास किया। लोक कथाओं का महत्व और प्रासंगिकता बताते हुए वे राहुल सांकृत्यायन तक जाते हैं। गांधी, विवेकानंद, रवींद्रनाथ, वासुदेव शरण अग्रवाल, रामविलास शर्मा उनके पाथेय रहें हैं। जायसी, कबीर, त्रिलोचन, निराला, पंत, अज्ञेय, प्रसाद उनके प्रिय कवि। शुक्ल जी, हजारी प्रसाद, कुँवरनारायण से मानसिक संवाद चलता रहा।

विश्वनाथ त्रिपाठी जी के ‘व्योमकेश दरवेश’ को यूँ ही पुण्य स्मरण नहीं कहा उन्होंने। भारतीय संस्कृति, इतिहास, नवजागरण काल और हिंदी साहित्य का एक साथ परिचय मिल जाता है। यूरोपीय नवजागरण और भारतीय में अंतर दिखाते हुए बताते हैं कि कैसे उनके यहाँ धर्म और विज्ञान में वैमनस्य था- ‘यहाँ परम्परा के विरुद्ध आधुनिक चेतना का मरणांतक संग्राम नहीं, वरन परम्परा के साथ आधुनिकता का सामंजस्य ही प्रधान स्वर रहा है।’ (पृष्ठ-356)

इस पुस्तक को पंचामृत कहें या पंचगंगा स्नान!

हिंदी साहित्य ही नहीं राजनीति शास्त्र एवं इतिहास के विद्यार्थियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी यह पुस्तक, ऐसा विश्वास है।

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