चुप्पी और दुख: डॉ सोनी पाण्डेय

डॉ सोनी पाण्डेय

चुप्पी

एक लम्बी चुप्पी जब घर ले और शब्द बेघर हो जाएं
जीवन में जब सब कुछ बेरंग हो
हवा कुछ कह जाती है कान में

आत्मा सुनती है मौन धरे अबोली भाषा
कहीं दूर से उठते रसोईं के धुएं सी यादें
सुलगती लकड़ियों सा प्रेम जब टभकता है
तुम अचानक आकर टन से बज उठते हो चौखट पर उसी क्षण
जब घहन अन्धेरा उतर रहा हो धरती पर

सूरज पहाड़ों के पीछे जब लौट जाता है
धूप सो जाती है नदियों के तलछट में
तुम उसी समय बज उठते हो जलतरंग की तरह
प्रेम की भाषा के पास शब्द नहीं होते
वह हवा, बादल,पेड़ और पहाड़ों संग पक्षियों के कलरव में गूँजता है

इन दिनों ढ़ल जाता है जब दिन
तुम्हारी याद का दीया जल उठता है
मध्यम -मध्यम लौ में पकता प्रेम
किसी साधिका सी साध रही हूँ खुद को
तुम आना तो मौन धरे आना
आजकल चुप्पियों को ओढ़ती बिछाती हूँ
तुम कुछ कहो तो टूटे सन्नाटा
अकेला आदमी बोले भी तो किससे

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दुख

दुख के दिन बड़े थे
सुख के छोटे
दुख की रातें लम्बी
सुख की छोटी

दिन तपते थे जैसे पठारी मैदान
हवा में जैसे घुल गई हो आग
रास्ते खत्म नहीं होते थे
थक कर बैठ जाता था मन

बहुत जलन थी दुनिया में
मन में भी
राख के नीचे दबी जो आग थी
बस उतनी आग बची थी

जलन और आग का रिश्ता भी ऐसा मिला
आग के जलने की धूम थी
लोग आग लगाकर मगन हुए
आग दहका कर हँसे,हिले-मिले

अब आग की खेती है
पानी सूख गया दिलों का
रात का अंधेरा उतर गया दिलों में
उजाले ने मौन धरा