रूची शाही
दरअसल वो कविताएँ नहीं थीं
वो दर्द की पातियाँ थीं
जो मैंने लिखी थीं तुम्हारे नाम
तुम भी जानते थे कि
वो कविताओं की शक्ल में
दर्द की चादर से लिपटे वो अल्फ़ाज़
एक पुकार थी, एक याचना थी
जो लिखा गया था इस उम्मीद से
कि जैसे ही पढोगे तुम, लौट आओगे
पर ऐसा हुआ नहीं
मैंने दोबारा लिखा तुम्हें
बार-बार लिखती रही
तुमको बताती रही अपनी हालत
पर न तुमने कोई जबाब दिया
न खुद आये कभी मिलने
मैं अब भी लिखती हूँ चिट्ठियां
पर अब वो कविताएँ बन गयी हैं
अब उनमें कोई उम्मीद नहीं
कोई लालसा नहीं
अब वो मात्र कविताएँ
जो सबके द्वारा सुनी और पढ़ी जायेंगी