गुरु वंदन कर लगाऊँ, मैं चरणों की धूल।
वह भी पुष्प बन जाता, जो रहा कभी शूल।।
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पहला जनम तब पाया, जब देखा संसार।
दूजा जनम तब पाया, जब गुरु दे संस्कार।।
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पहली गुरु होय माता, देवे मौलिक बोध।
इससे ही जाना हमने, संसार कैस होत।।
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गुरु बिन जीवन न होवे, मिले न कोई ज्ञान।
अंधकारमय जनम का, गुरु ही है वरदान।।
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ईश्वर से गुरु श्रेष्ठ है, ईश्वर ने दी जान।
जान को कैसे जीना, गुरु देवें संज्ञान।।
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पुरातन काल में विद्या, संस्कृति व संस्कार।
अब जीविकोपार्जन है, वर्तमान आधार।।
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गुरु वह श्रेष्ठ जो न करे, शिक्षा का व्यापार।
संग किताबी शिक्षा के, ज्ञान भी दे अपार।।
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गुरु के लिए सब सम है, कोई ऊंच न नीच।
बनकर के स्वयं माली, दे हर पौधा सींच।।
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कुम्हार जैसे भू को, देता है आकार।
गुरु वैसे ही शिष्य का, जीवन देत सुधार।।
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गुरु की बाते मानिए, कभी न लीजे आह।
गुरु वाणी अनमोल हैं, दिखावे प्रभु राह।।
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सोनल ओमर
कानपुर, उत्तर प्रदेश