रूची शाही
किसी को नहीं ढूंढा फिर
कभी जब मन घबराया तो
कभी जब रोना आया तो
कभी जब नींद नहीं आई तो
रह गई चुपचाप…
मैने समझा लिया खुद को
दे दी तसल्ली और
बहला लिया खुद को
ये कहकर कि लोग दुख नहीं समझते
ना ही बांटते हैं
बस जानना चाहते है
कि क्या क्या घटा मेरे जीवन में
तसल्लियां दे दे कर वो और कुरेदते थे
और क्या हुआ…? और क्या कहा उसने..?
मैने देखा अपने रिश्तेदारों को
वो उस दिन मुझसे ज्यादा बात करते थे
जिस दिन मैं अपना कोई रोना रोती
अपने जख्मों की नुमाइश करती
मेरा घनिष्ट दोस्त भी
यही करता था
हां बस सहानुभूति ज्यादा मिलती
पर समझने से ज्यादा जानने की इच्छा
उसके अंदर भी होती थी।
मैं थक गई कहते कहते और रोते रोते
फिर उबाऊ लगने लगा
सोचने लगी वो भी ऐसे ही उबते होंगे सुनते सुनते
फिर लगा जब सहने की क्षमता है
लड़ते रहने का हौसला है
फिर अपने दुखो को किसी से कह के
क्यों पराया करना
दुख अबोले ही अच्छे हैं